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विषय-परिचय
प्रस्तुत अधिकारका नाम अनुभागविभक्ति है। अनुभाग फलदानशक्तिको कहते हैं। यह दो प्रकारका है-बन्धके समय जो अनुभाग प्राप्त होता है एक वह और बन्धके बाद द्वितीयादि समयोंमें जो अनुभाग रहता है एक वह । बन्धके समय प्राप्त होनेवाले अनुभागका विचार महाबन्धमें किया है। मात्र उसका यहाँ अधिकार नहीं है। यहाँ तो ऐसे अनुभागका विचार किया गया है जो सत्ताके रूपमें बन्ध समयसे लेकर अवस्थित रहता है। वह बन्धकालमें जितना प्राप्त हुआ है उतना भी हो सकता है और क्रियाविशेषके कारण अन्यप्रकार भी हो सकता है। मोहनीय कर्मको उत्तर प्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं । एकबार उत्तर भेदोंका आश्रय लिए बिना और दूसरी बार इनका श्राश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकारमें अनुभागका सांगोपांग विचार किया गया है, इसलिए इसका अनुभागविभक्ति नाम सार्थक है। तदनुसार इस अधिकारके दो भेद हैं-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति । उसमें भी चूर्णिकार प्राचार्य यतिवृषभने मूलप्रकृति अनुभागविभक्तिकी सूचनामात्र की है । वीरसेनस्वामीने उसका विशेष व्याख्यान उच्चारणावृत्तिके अनुसार तेईस अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया है। वे तेईस अनुयोगद्वार ये हैं-संज्ञा, सर्वानुभागविभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्टानुभागविभक्ति, अनुत्कृष्टानुभागविभक्ति, जघन्यानुभागविभक्ति, अजघन्यानुभागविभक्ति, सादिअनुभागविभक्ति, अनादिअनुभागविभक्ति, ध्रुवानुभागविभक्ति, अभ्र वानुभागविभक्ति, एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविच्य, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति एक है, इसलिए उसका विचार करते समय सन्निकर्ष अनुयोगद्वार सम्भव नहीं है ।
___ संज्ञा--धातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करनेवाला होनेसे मोहनीयकर्मकी घातिसंज्ञा है। उसमें भी यह दो प्रकारकी है--सर्वघाति और देशघाति । अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले जीवगुणका जो पूरी तरहसे घात करता है उसे सर्वघाति कहते हैं और जो पूरी तरहसे घात करने में समर्थ न होकर एकदेश घात करता है उसे देशवाति कहते हैं। यहाँ मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाति ही होता है, क्योंकि उसका उत्कृष्ट संक्निष्ट परिणामोंसे संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव बन्ध करता है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है. क्योंकि उसमें जघन्य अनुभाग भी सम्मिलित है। जघन्य अनुभाग देशघाति होता है. क्योंकि इसमें एकस्थानिक श्रनुभागकी उपलब्धि होती है और अजघन्य अनुभाग देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारका होता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिकसे लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त चारों प्रकारका अनुभाग उपलब्ध होता है।
कुल अनुभाग चार प्रकारका होता है - एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । जहाँ केवल लतारूप अनुभाग होता है उसकी एकस्थानिक संज्ञा है। जहाँ लता और दारुरूप अनुभाग होता है उसकी विस्थानिक संज्ञा है । जहाँ लता, दारु और अस्थिरूप अनुभाग होता है उसकी त्रिस्थानिक संज्ञा है और जहाँ लता, दारु, अस्थि और शैलरूप अनुभाग होता है उसकी चतुःस्थानिक संज्ञा है। इस प्रकार स्थानसंज्ञाके चार भेद हैं। यहां इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि उत्तर अनुभागमें पूर्व अनुभाग गर्भित मान कर भी ये द्विस्थानिक श्रादि संज्ञाएं व्यवहृत होती हैं। यद्यपि लता, दारु, अस्थि और शैल ये उपमाएँ मानकषायके लिए दी जाती हैं, क्योंकि उत्तरोत्तर इस प्रकारकी कठोरताका भाव उसमें सम्भव है फिर भी यहाँ अनुभागकी उत्तरोत्तर तीव्रताको देखकर ये संज्ञाएँ अारोपित की गई हैं। इनमेंसे लतारूप अनभाग और दारुरूप अनुभागका अनन्तवाँ भाग देशघाति माना गया है और शेष अनुभाग सर्वघाति माना गया है। मोहनीय कर्म चातियोंमें पठित है, इसलिए संज्ञाके ये भेद शेष घातिकर्मों में भी सम्भव
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