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________________ सर्वविभक्ति-नोसर्बविभक्ति-सर्वविभक्तिमें सब अनुभाग और नोसर्वविभक्तिमें उससे कम अनुभाग विवक्षित है। मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे यह यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए। उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टविभक्ति-- सर्वोत्कृष्ट अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका अनुभाग उस्कृष्टविभक्ति कहलाता है और उससे न्यून अनुभाग अनुत्कृष्ट विभक्ति कहा जाता है। यह भी अपने अपने अनुभागका विचार कर घटित कर लेना चाहिए । जघन्य-अजघन्यविभक्ति- सबसे जघन्य स्थानकी अन्तिम वर्गणाका अनुभाग या अन्तिम कृष्टिका अनभाग जघन्यविभक्ति है और इससे अधिक अनुभाग अजघन्यविभक्ति है जो मूल और उत्तर प्रकृतियों में यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए। सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवविभक्ति-मूल प्रकृतिकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होता है, अतः जघन्य अनुभाग सादि और अध्रुव कहा है। इसके पूर्व सब अनुभाग अजघन्यरूप रहता है, इसलिए अजघन्य अनुभाग अनादि तो है ही साथ ही वह भव्यकी अपेक्षा अध्र व और अभव्यकी अपेक्षा ध्र वरूप होनेसे सादिविकल्पके सिवा तीन प्रकारका कहा है। उत्कृष्ट अनभाग और अनत्कृष्टअनभाग कदाचित् होते हैं, इसलिये इनमें सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प बनते हैं। उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा विचार करनेपर चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका अजघन्य अनुभाग तो अनादि, ध्रव और अध्र वके भेदसे तीन प्रकारका है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग आपकोणिमें प्राप्त होनेसे अजवन्य अनभागमें सादि विकल्पके सिवा शेष तीन विकल्प बन जाते हैं। तथा इन १३ प्रकृतियोंका शेष तीन प्रकारका अनभाग और इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका चारों प्रकारका अनुभाग कादाचित्क होनेसे सादि और अध्रुव है। स्वामित्व-स्वामित्व दो प्रकारका है-उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामित्व और जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व । मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव करता है, इसलिए वह तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामी है ही। साथ ही उसका घात हुए बिना ऐसे जीवके एकेन्द्रिय श्रादि अन्य पर्यायोंमें मरकर उत्पन्न होने पर एकेन्द्रिय अादि अन्य जीव भी मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिके स्वामी हैं। मात्र भोगभूमिके तिर्यञ्च और मनुष्य तथा श्रानतादिकके देव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके स्वामी नहीं होते, क्योंकि एक तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंकी इनमें उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे इन जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता। सामान्यसे मोहनीयका जघन्य अनभाग क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होता है, इसलिए अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी है। मोहनीयके अवान्तर भेदोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनभाग, विभक्तिका स्वामी मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा जो स्वामित्व कहा है उसके ही समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामी उनकी सत्तावाले सब जीव हैं । मात्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका घात करनेके बाद उसका स्वामी नहीं है। तथा मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव होता है, क्योंकि मिथ्यात्वके अनुभागका बात होकर सबसे जघन्य अनुभाग इसीके शेष रहता है, और वह घात किये गये उक्त अनुभागके साथ अन्य एकेन्द्रियोंमें व द्वीन्द्रिय आदिमें उत्पन्न होकर जब तक उसे नहीं बढ़ाता है तब तक ये जीव भी मिथ्यात्वकी जघन्य अनभागविभक्तिके स्वामी होते हैं। देव, नारकी और असंख्यातवर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य जवन्य अनभागविभक्तिके स्वामी नहीं होते, क्योंकि इनमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंकी मरकर उत्पत्ति सम्भव नहीं है। इसी प्रकार मध्यकी अाठ कषायोंकी जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला अन्तिम समयवर्ती क्षपक जीव होता है। सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय अपने अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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