SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुभागकाण्डकका पतन करनेवाला जीव होता है । अनन्तानुबन्धीकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी विसंयोजनाके बाद उससे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें होता है । यद्यपि इस समय शेष कषायोंका अनुभाग अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रात होता है फिर भी वह उस समय बँधनेवाले अनुभागरूप परिणम जाता है, इसलिए वह अनुभाग सूचम निगोद अपर्याप्तके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। यही कारण है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका स्वामित्व सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवको न देकर अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाके बाद पुनः संयोजना होनेवाले जीवको संयोजना होनेके प्रथम समयमें दिया है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और तीन वेदोंका जघन्य अनुभाग स्वोदयसे क्षपकणि पर चढ़े हुए जीवके अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए उस उस अवस्था विशिष्ट जीव इनकी जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामी है तथा छह नोकपायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी भी उनकी अन्तिम फालिका पतन करनेवाला क्षपक जीव होता है। यह स्वामित्वका विचार गति आदि मार्गणाओंका आश्रय लिए बिना किया है। गति आदि मार्गणाओंमें जहाँ श्रोधप्ररूपणा सम्भव है वहाँ श्रोधके समान जानना चाहिए । अन्यत्र अन्य विशेषताओंको जानकर घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ नरकमें और देवों में असंजी जीव मरकर उत्पन्न होते हैं इसलिए वहाँ उत्पन्न हए हतसमुत्पत्तिक कर्भवाले ऐसे जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामित्व कहा है। सम्यक्त्वको जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व पूर्ववत् है । सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य स्वामित्व वहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि क्षपणाको छोड़कर अन्यत्र उसका अनभागकाण्डकघात नहीं होता । अनन्तानुबन्धीका जघन्य स्वामित्व भी पूर्ववत् है । अपनी अपनी विशेषताको जानकर इसीप्रकार अन्यत्र भी स्वामित्व घटित कर लेना चाहिए। __काल-सामान्यसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इसके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होनेके बाद उसका अन्तर्मुहूर्तमें नियमसे घात हो जाता है । इसके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अनुभागके अनुत्कृष्ट होने पर बन्धद्वारा उसके उत्कृष्ट होनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें उक्तकाल तक परिभ्रमण करने पर वहाँ उत्कृष्ट अनुभागकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । इसी प्रकार मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नो नोकषायोंका काल पूर्वोक्त प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता होनेपर अन्तमुहूर्त कालके भीतर उनकी क्षपणा सम्भव है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है, क्योंकि इतने काल तक इनकी सत्ता बनी रहने में कोई बाधा नहीं आती। यहाँ साधिकसे कितना काल लिया जाय इस विषयमें प्राचार्यों में मतभेद है । इसके लिए मूलप्रन्थ पृ० १८८ देखिए । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनकी क्षपणाके समय प्रथम काण्डक घातसे लेकर इनकी क्षपणामें इतना काल अवश्य लगता है। मोहनीयके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें इसकी प्राप्ति होती है । तथा इसके पहले वह अजघन्य होता है, इसलिए अजघन्य अनुभागको अभव्योंकी अपेक्षा अनादि-अनन्त और भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त इस तरह दो प्रकारका कहा है। उत्तर प्रकतियों की अपेक्षा मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मके अवस्थानका इतना काल है । इसके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाला जीव अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक इस अनुभागके साथ अवश्य ही रहता है। तथा उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, क्योंकि अनभागबन्धाध्यवसान परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण बतलाए हैं । मिथ्यात्वके समान ही सम्यग्मिथ्यात्व, पाठ कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए । मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy