SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो ४६. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मोह० जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरेइंदिएमु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । एवं बादरेइंदियपज्जत्ताणं । णवरि अजहण्णाणु० उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियश्रपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० अंतोमु०। मुहुमेइंदिएस मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज. एगस०, उक० असंखेज्जा लोगा। मुहुमेइंदियपज्ज० मोह० जहण्णाणुभाग० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० उक० अंतोमु० । मुहुमेइंदिए अपज्ज० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । वेइंदियतेइंदिय-चरिंदियाणं तेसिं चेव पज्जताणं च मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणमंतोमुहुत्तं देसूर्ण, उक्क० संखेज्जाणि वस्सस्थिति क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेषकी अन्तमुहूर्तप्रमाण होनेसे इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल उक्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। सौधर्मादिक देवोंमेंसे उन्हीं देवोंके जघन्य अनुभाग होता है जो पिछले भवमें क्रिया द्वारा सबसे जघन्य अनुभाग कर चुके हैं और शेषके अजघन्य अनुभाग होता है। यही कारण है कि सौधर्मादि सब देवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य भवस्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण कहा है। ६४६. इन्द्रियकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। बादर एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंगुलके असंख्यातवें भाग है जो कि असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल प्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्यानुभागका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्यानुभागका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सामान्य दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय तथा उन्हींके पर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy