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________________ ३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४५. तिरिक्खगईए तिरिक्खेमु मोह. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुसअपज्ज० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । मणुसतियम्मि मोह० जहण्णाणु० अोघं । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क. सगसगहिदी। सोधम्मादि जाव सव्वसिद्धि ति मोह. जहण्णाजहण्णाणुभागाणं जहण्णुकस्सेण सगसगजहण्णुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । .. ६४५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्यानुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है । सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्यानभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्यानुभागविभक्तिका काल ओघके समान है और अजघन्यानुभागविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्यके क्षद्रभवग्रहणप्रमाण है और शेष दो के अन्तमुहूर्त है, उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें जो सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव अजघन्य अनुभागका घात कर देता है उसके तब तक जघन्य अनुभागकी सत्ता रहती है जब तक वह बन्धद्वारा उसे बढ़ा नहीं लेता । यदि एक समयमें ही उसने जघन्य अनुभागसे अधिकका बन्ध कर लिया तो जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है, अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। इसी प्रकार जिस तिर्यश्चने एक समयके लिए अजघन्य अनुभाग प्राप्त किया और दूसरे समयमें मर कर वह मनुष्य हो गया तो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है, अन्यथा अनुत्कृष्ट अनुभागकी तरह असंख्यात लोक होता है । यहाँ पर अनन्त काल न कहनेका कारण यह है कि एक तो सूक्ष्म एकेन्द्रियों में निरन्तर रहनेका काल असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए जिसने सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायके प्रारम्भ में और अन्तमें जघन्य अनुभाग करके मध्यमें वह अजघन्य अनुभागका स्वामी रहा तो अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक देखा जाता है। दूसरे पृथिवीकायादिमें निरन्तर रहनेका काल भी असंख्यात लोक है, इसलिए किसी सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकने जघन्य अनुभाग किया और दूसरे समयमें वह अन्य कायवाला होकर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक अजघन्य अनुभागका स्वामी बना रहा । पुनः इतने कालके बाद वह सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त होकर जघन्य अनुभागका स्वामी हुआ तो भी अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण देखा जाता है। हतसमुत्पत्तिकर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागके साथ जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें बढ़ा लेता है तो जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है. अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इनकी जघन्य भवस्थिति ही इतनी है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मनुष्यत्रिकमें क्षपकश्रेणि सम्भव होनेसे इनमें जघन्य अनुभागका काल ओघके समान बन जाता है । तथा सामान्य मनुष्योंकी भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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