SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो ३१ ४४. आदेसेण रइएसु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अजहण्णाणु० ज० दस वाससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए । णवरि अजहण्णाणु०' सगहिदी। एवं देव०--भवण०--वाणवेंतर० । णवरि अजहण्णाणु०' सगहिदी। विदियादि जाव सत्तमि ति मोह० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अन० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी संपुण्णा । एवं जोदिसिया० । णवरि सगहिदी वत्तव्वा । अनुभागविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्वतक वह अजघन्य होती है, इसलिए उसका काल उक्तप्रमाण कहा है। ६४४. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजवन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागर है। इसी प्रकार पहलो पृथिवीमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण होता है। इसी प्रकार सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें होता है किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल अपनी स्थिति प्रमाण होता है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिए। विशेषार्थ जो हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च मरकर नरकमें जन्म लेता है उसके तब तक जघन्य अनुभाग रहता है जब तक वह सत्तामें स्थित अनुभागसे अधिक अनुभागबन्ध नहीं करता है। अतः यदि वह दूसरे समयमें ही अनुभागको बढ़ा लेता है तो उसके जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। अन्तमुहूर्तके बाद हुआ अजघन्य अनुभागका सत्त्व आयुके अन्त समय तक रहता है, अतः अजघन्य अनुभाग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष होता है। और यदि अजघन्य अनुभागके साथ नरकमें जन्म लिया गया तो उसका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर होता है, क्योंकि नरकमें इतनी ही उत्कृष्ट स्थिति है। पहले नरक, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला असंज्ञी उनमें जन्म ले सकता है। अन्तर केवल इतना है कि इनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण लेना चाहिये । जैसे पहले नरकमें एक सागर । दूसरे आदि नरकोंमें तथा ज्योतिषी देवोंमें असंज्ञी तो जन्म ले नहीं सकता। अत: अजघन्य अनुभागवाला जो जीव उक्त स्थानोंमें जन्म लेकर अन्तमुहूर्तके बाद सम्यक्त्वको ग्रहण करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। यदि वह जीव विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यक्त्वसे च्युत हो जाता है या मर जाता है तो उसके जघन्य अनुभागका काल अन्तमुहूर्त होता है, अन्यथा कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है। किन्तु सातवें नरकमें सम्यग्दृष्टि अवस्थामें मरण नहीं होता, अतः और अधिक कम कर लेना चाहिये। अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल स्पष्ट ही है। . .. ता• प्रतौ प्रजहरणक० इति पाठः । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy