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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
$ ४१. सणि० मोह० उक्क० जह० एगस०, उक्क० तोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं ।
४२. आहारणुवादेण मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० उक० अंगुलस्स असंखे० भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि। अणाहरी कम्मइयभंगो |
एवमुकस्सकालानुगमो समत्तो ।
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ज० एस ०, उस्सप्पिणी
४३. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द े सो- ओघे० आदेसे ० | तत्थ ओघे० ' मोह० जहण्णाणुभागविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अज० अादि पज्जवसिदो अणादि सपज्जवसिदो वा ।
यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम 1
§ ४१. संज्ञियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है।
विशेषार्थ - जो संज्ञी भवके अन्त में एक समय तक उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभाग के साथ रहकर दूसरे समयमै असंज्ञी हो जाता है उस संज्ञीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$ ४२. आहारककी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल गुलके असंख्यातवें भाग है जो कि असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणीप्रमाण है । अनाहारकों में कार्मण काययोगियोंके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - यहाँ आहारकोंमें संज्ञियोंके समान कालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । मात्र इनकी काय स्थिति अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। कार्मणुकाययोगी अनाहारक ही होते हैं, इसलिए अनाहारकों में कार्मण काययोगियों के समान काल कहा है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ ।
६ ४३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका काल अनादि - अनन्त और अनादि- सान्त है ।
विशेषार्थ - मोहनी की जघन्य अनुभागविभक्ति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय में होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । अजघन्य अनुभागविभक्ति भव्यों के अनादिसे अनन्त काल तक और भव्यों के अनादिसे सान्तकाल तक होती है, क्योंकि जघन्य १. प्रा० प्रतौ श्रादे० श्रघे० इति पाठः ।
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