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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो १२३९ ३८७. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०णवणोक० जहणाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा। सम्मत्त-अणंताणु०. चउक्क० ओघं । सम्मामि० श्रोघं । णवरि जहण्णाणु० णत्थि। एवं पढमपुढवि.. पंचिंदियतिरिक्व-पंचि०तिरि०पज्ज०-देवोघं त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति वावीसपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । अणंताणु०चउक० अोघं । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि जहएणाण. णत्थि । एवं जोदिसि । ३८८. तिरिक्खेसु वोवीसंपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । सम्मत्तअणंताणु० चउक्क० ओघं । सम्मामि० ओघं । णवरि जहण्णं णत्थि। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं पढमपुढविभंगो। णवरि सम्मत्त० ज० णत्थि। एवं भवण०-वाणवेंतरा ति । पंचितिरि०अपज्ज. छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० सव्वद्धा । सम्मा०-सम्मामि० जोणिणीभंगो। १ ३८६. मणुस्सेसु मिच्छत्त-अहक० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो । सम्मत्त --अहक०-तिएिणवेद० जहणाण० ज० एगसमो, उक्क० संखेज्जा समया । सम्मामि०--छण्णोक० जहण्णाणु० ज० उक्क० अंतोमु० । सव्वासि ६३८७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघ की तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग श्रोध की तरह है। इतना विशेष है कि नरकमें उसका जघन्य अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजधन्ध अनुभागका काल सर्वदा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघ की तरह है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघ की तरह है। इतना विशेष है कि उनमें जघन्य अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। ३८८. सामान्य तिर्यञ्चोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघ की तरह है । सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघ की तरह है। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमें उसका जघय अनुभाग नहीं है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासी और व्यस्तरोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतियंञ्चअपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग योनिनियोंके समान है। ६ ३८६. मनुष्योंमें मिथ्यात्व और आठ कषायके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व, आठ कषाय और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल. संख्यात समय है। सभ्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायो के जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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