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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए अंतरं * पाणाजीवेहि अंतरं। $ ३६१. सुगममेदं, अहियारसंभालणत्तादो । ® मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मंसियाणमंतर केवचिरंकालादो होदि ? ६ ३६२. सुगममेदं । , जहरणेण एगसमत्रो। $ ३६३. कुदो ? उक्कस्साणुभागेण विणा तिहुवणासेसजीवेसु एगसमयमच्छिदेसु विदियसमए तत्थ केत्तिएहि वि उक्कस्साणुभागे बंधे एगसमयअंतरुवलंभादो। 8 उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। $ ३६४. कुदो ? उक्कस्साणुभागेण विणा असंखे०लोगमेत्तकालमच्छिय पुणो तिहुवणजीवेसु केत्तिएम वि उक्कस्साणुभागमुवगएमु असंखेजलोगमेत्तुक्कस्संतरुवलंभादो। अणंतमंतरं किण्ण जादं ? ण, परिणामेसु आणंतियाभावादो' । अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि चेवे ति कुदो णव्वदे ? अणुभागबंधहाणाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तण्णहाणुववत्तीदो । ण च कारणेसु अणंतेसु संतेसु कजाणि असंखेज्ज * नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका प्रकरण है। ६ ३९१. यह सूत्र सुगम है, क्योकि इसके द्वारा अधिकारकी सम्हाल की गई है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तरकाल कितना है ? ६३९२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । ३९३. क्योंकि तीनों लोकोंके समस्त जीवों के एक समय तक उत्कृष्ट अनुभागके बिना रहने पर और दूसरे समयमें उनमेंसे कितने ही जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर एक समय अन्तर पाया जाता है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। ६३९४. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागके बिना असंख्यात लोकप्रमाण काल तक रहने पर, पुनः तीन लोकके जीवोंमें से कुछके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर लेने पर असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। शंका-अनन्त काल अन्तर क्यों नहीं होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि परिणाम अनन्त नहीं हैं। शंका-अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक मात्र ही हैं यह कैसे जाना ? समाधान-यदि अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकमात्र न होते तो अनुभागबन्धके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण नहीं होते। यदि कहा जाय कि अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान अनन्त रहें और अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक मात्र रहें। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कारणके अनन्त होने पर कार्य असंख्यात लोकमात्र नहीं हो सकते, क्योंकि १. ता० प्रतौ प्राणतिय ( या ) भावादो, श्रा० प्रतौ आणंतियभावादो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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