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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहन्ती ४ असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख- मणुस्सा च मिच्छत्त जहण्णाणुभागस्स ण होंति सामिणो, तत्थ सुहुमेइंदियाणमुप्पत्तीए अभावादो । * एवमट्ठकसायाणं । ६ २४१. जहा मिच्छत्त जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स परूवणा कदा तहा कसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स वि परूवणा कायव्वा, अविसेसादो । अकसायाणं खवणाए जहणसामित्तं किण्ण दिज्जदि ? ण, अंतरे अकदे जाणि कम्माणि विणद्वाणि तेसिमणुभागसंतकम्मं पेक्खिदूण मुहुमेई दियजहण्णाणुभागसंतकम्मस्स जादिविसेसेण अनंतभादो | १६४ * सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २४२. सुगमं । * चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । $ २४३. दंसणमोहक्खवणार अधापमत्तकरण - अपुव्वकरणाणि करिय अणियहिहैं। देव, नारकी और असंख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य मिध्यात्वके जघन्य अनुभागके स्वामी नहीं होते, क्योंकि उनमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति नहीं होती । * इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिये । $ २४१. जैसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कथन किया है वैसे ही आठ कषायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मकी भी प्ररूपणा कर लेनी चाहिये, क्योंकि दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । शंका- आठ कषायोंकी क्षपणावस्था में उनके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया ? अर्थात् आठ कषायों का क्षपण करनेवाले जीव को जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी क्यों नहीं बतलाया ? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तरकरण किये बिना जो कर्म नष्ट होते हैं उनके अनुभाग सत्कर्म को देखते हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवका जघन्य अनुभागसत्कर्म जातिविशेषके कारण अनन्तगुणा हीन पाया जाता है । विशेषार्थ -- उदय प्राप्त प्रकृतिके नीचे और ऊपर के निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बीके निषेकों को अपने स्थान से उठाकर नीचे और ऊपरके निषेकों में क्षेपण करनेके द्वारा उनके भाव कर देने को अन्तरकरण कहते हैं। इस अन्तरकरण कालमें हजारों अनुभागकाण्डक घात होते हैं, अत: यह अन्तरकरण हुए बिना ही जिन प्रकृतियों का विनाश होता है उनका क्षपणाकालमें जितना अनुभाग पाया जाता है उससे सूक्ष्म एकेन्द्रियमें अनुभागका घात कर चुकने पर कम अनुभाग पाया जाता है, अतः आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियको बतलाया है । * सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ९२४२. यह सूत्र सुगम है । * अन्तिम समयवर्ती क्षीणदर्शनमोही जीवके सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म होता है । $ २४३. दर्शनमोहके क्षय के लिये अधः प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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