SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .wwwwwwwwwwwwwwwww गा० २२ ] . भणुभागविहत्तीए सामित्त मुत्तादो णव्वदे। संपहि एदेण जहण्णाणुभागसंतकम्मेण सह उप्पजमाणजीत्रविसेसपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणदि ___ हदसमुप्पत्तियकम्मेण अण्णदरो एइंदिओ वा वेइंदिरो वा तेइंदिओ वा चउरिंदिओ वा असरणी वा सरणी वा सुहुमो वा बादरोवा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मियो होदि।। २४०. हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तद्धतसमुत्पत्तिक' कर्म । अणुभागसंतकम्मे धादिदे जमुव्वरिदं जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा त्ति भणिदं होदि । तेण हदसमुप्पत्तियकम्मेण सह अण्णदरो एइंदिओ वा अण्णदरो वेइंदिओ वा अण्णदरो तेइंदिओ वा अण्णदरो चरिंदिओ वा अण्णदरो असण्णी वा अण्णदरो सण्णी वा अण्णदरो मुहुमो वा अण्णदरो बादरो वा अण्णदरो पज्जत्तो वा अण्णदरो अपजत्तो वा होदि । एवं जादे सो जीवो जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ जायदे। एदे सव्वे वि जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स सामिणो होति ति भणिदं होदि । देवा णेरइया विशेषार्थ सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त जीव जब मिथ्यात्वके अनुभागसत्कर्मका घात कर देता है तो उसके मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग पाया जाता है । यद्यपि उस जीवके जो अनुभागबन्ध होता है वह सत्तामें स्थित अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है किन्तु इस अनुभागविभक्तिमें सत्तामें स्थित अनुभाग की ही विवक्षा है, अत: उसका ग्रहण नहीं किया है। तथा यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके अपर्याप्त जीवसे विशेष विशुद्धि होती है तथापि थोड़ी विशुद्धके होते हुए भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव जातिविशेषके कारण पर्याप्त जीवकी अपेक्षा अनुभागका अधिक घात कर डालता है और यह बात इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहके क्षपकके न बतलाकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके बतलाया है। अब इस जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ उत्पन्न होनेवाले जीवके विषयमें विशेष कथन . करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * साथ ही जब वह हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, अथवा संज्ञी, सूक्ष्म, अथवा बादर, पर्याप्त अथवा अपर्याप्त जीव होता है तब वह भी जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला होता है। ६२४७. हत अर्थात् घात किये जाने पर जिसकी उत्पत्ति होती है उस कर्मको हतसमुत्पत्तिककर्म कहते हैं। श्राशय यह है कि अनुभागसत्कर्मका घात होने पर जो जघन्य अनुभागसत्कर्म अवशिष्ट रहता है उसकी 'हतसमुत्पतिक कर्म' संज्ञा है। उस हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ कोई भी एकेन्द्रिय, अथवा कोई भी दो इन्द्रिय, अथवा कोई भी तेइन्द्रिय, अथवा कोई भी चौइन्द्री, अथवा कोई भी असंज्ञी, अथवा कोई भी संज्ञी, कोई भी सूक्ष्म, अथवा कोई भी बादर, कोई भी पर्याप्त, अथवा कोई भी अपर्याप्त होता है। ऐसा होने पर वह जीव जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला होता है। सारांश यह है कि जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला सूक्ष्म निगोदिया जीव मरकर उक्त एकेद्रियादिकमें उत्पन्न हो सकता है, अतः ये सब जीव जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामी होते १. ता०प्रतौ वरसमुत्पत्तिकं प्रा०प्रतौ तदुवसमुत्पत्तिकं हति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy