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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो १९१ पंचिंदियतिरिक्ख० अपज्ज०-मणुस्सअपज्ज. अहावीसं पयडीणं उक्कस्साणुभाग० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० जहण्णुक० अंतोमु० । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अणक्क० णत्थि । मणसतिय. पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अणुक० ओघं । मणसपज्जतेसु सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभाग० ज० एगस०। 5२६२. देवाणं णेरइयभंगो। एवं भवणादि जाव सहस्सार ति। णवरि सगसगुकस्सहिदी वचव्या । भवण--वाण--जोदिसि० सम्मत्त० अणक. णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्जा ति मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० उक्कस्साणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्म० उकस्साणुभाग० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी। एवं सम्मामि० । सम्मत्त० अणक० देवोघं । अणंताणचउक्क० उक्क० जह. अंतोम० एगसमओ, उक्क. सगहिदी। अणदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणं उकस्ताणुक्कस्स० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी। सम्मत्त० उक्क० ज. जहण्णहिदी, उक्क. उकस्सद्विदी। अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । एवं सम्मामि० । णवरि अणुक्क० णत्थि । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीके समान भंग है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल ओघकी तरह है । मात्र मनुष्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय है। ६२९२. सामान्य देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। आनत स्वर्गसे लेकर नवयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका समझना चाहिए। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल सामान्य देवोंकी तरह जानना चाहिए । अनन्तानबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्यूा काल अ.तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उसका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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