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________________ १९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागवि त्ती ४ अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । सम्मत्त. उक्क० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि सगलाणि । अणुक० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मामि० उक्क० मिच्छताणुक्कस्सभंगो। अणुकस्सं णत्थि । एवं पढमादि जाव सत्तमि त्ति । गवरि सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । विदियादि जाव सत्तमि ति सम्मत्त० अणुक० णत्थि । २६१. तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणमुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। सम्मत्त० उक्क० अणुभाग० ज० एगस०, उक्क० तिपिण पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । अणुक्क० जेरइयभंगो। सम्मामि० उक्क० अणुभाग० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । अणुक्क० जेरइयभंगो । सम्मामि० उक्क० अणुभा० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सादिरेयाणि । अणुक्कस्सं गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि छब्बीसंपयडीणं उक० तिरिक्खभंगो। अणुक० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क. सगहिदी। सम्मत्त. अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि जोणिणीसु सम्मत० अणुक० णत्थि । काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके कालकी तरह है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नरकमे नहीं होता। इस प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं तक होता है। इतना विशेष है कि प्रत्येक पृथिवीमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं रहता। २९१. तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्टका नारकियोंके समान भंग है। सम्यग्भिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कमका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चयोनिनियों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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