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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्त जोणियो वा] पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ वा उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव ण हणदि ताव जो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स उक्कस्साणुभागविहत्ती । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-सव्वपंचकाय-तसअपज्ज. ओरालियमिस्स०-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-असण्णि-अणाहारि ति ।। १८. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति मोह० उक्कस्स० कस्स ? अण्णदरस्स जो तप्पाओग्गउक्कस्सअणुभागसंतकम्मिओ दव्वलिंगी मदो अप्पप्पणो देवेमु उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव तस्स उकसाणुभागविहत्ती । हदे अणुकस्सा । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति उक्कस्साणुभागविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स जो तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ वेदगसम्मादिही अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव उक्कस्साणुभागविहत्ती। हदे अणुक्कस्साणुभागविहत्ती । ६ १६. आहार-आहारमिस्स० उक्कस्साणुभाग० कस्स ? जो संजदो वेदगसम्माइही अहावीससंतकम्मिओ तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मेण उहाविदाहारसरीरो तस्स उक्कस्सिया अणुभागविहत्ती । अण्णस्स अणुक्कस्सिया । अवगद० उक्क० पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अथवा पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके उसका घात किये बिना हो यदि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है तो उस पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। इसी प्रकार मनुष्यअपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पश्चन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रयोगी, वैक्रियिक मिश्रयोगी, कार्मणकाययोगी, असंज्ञो और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिये। विशेषार्थ-मूलमें नारकीसे लेकर आहारक पर्यन्त जो मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है, अतः उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं किया जाता तब तक उक्त मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। तथा पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपयोप्तकमें और मूलमें गिनाई गई मनुष्य अपर्याप्तकसे लेकर अनाहार मार्गणापर्यन्त मार्गणाओंमें यद्यपि मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तो नहीं होता है, किन्तु कोई मनुष्य आदि यदि उसका बन्ध करके उक्त मार्गणाओंमें आजाते हैं तो उनमें भी उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व पाया जाता है। ६१८. आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जिसके आनतादि स्वर्गके योग्य मोहनीयकर्मके उत्कष्ट अनुभागकी सत्ता है ऐसा जो द्रव्यलिङ्गी मरकर अपने योग्य उक्त देवोंमें उत्पन्न होता है वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है और उत्कृष्ट अनुभागका घात कर देने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्कृष्टानुभागविभत्ति किसके हीती है ? अनुदिश आदिके योग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि अपने योग्य उक्त देवोंमें उत्पन्न होता है वह जब तक उत्कृष्ट अनुभागका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्टानुभागविभक्ति होती है, और उत्कृष्ट अनुभागका घात करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है । ६१६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि संयमी तत्प्रयोग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ताके रहते हुए आहारकशरीरको उत्पन्न करता है उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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