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________________ १२ aadiwarrr - -- - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ १७. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्कस्साणु० कस्स ? अण्णदर० उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव सो ण हणदि ताव । अणुक्क० कस्स ? अण्णद० । एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्व-सव्वमणुस्स-देव. भवणादि जाव सहस्सार० पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०--ओरालिय०-वेउव्विय०-तिण्णिवेद०चत्तारिक०-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०--अभवसि०मिच्छादिहि-सण्णि--आहारि ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. मोह० उक्कस्साणुभागविहत्ती कस्स ? अण्णद० मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा [पंचिंदियतिरिक्ख विशेषार्थ-मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों गतिके उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामी संज्ञी पश्चन्द्रिय पर्याप्तक जीव करते हैं। करने पर जब तक उसका घात नहीं किया जाता तब तक वह जीव मरकर जहां भी उत्पन्न होगा वहीं उसके उत्कृष्ट अनुभागका सत्व पाया जायेगा। इसी कारणसे एकेन्द्रियादिकमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध न होने पर भी उसका सत्त्व कहा है। किन्तु भोगभूमियां जावोंके मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व नहीं होता, क्योंकि न तो वहाँ मोहनीय का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ही होता है और न उसकी सत्तावाला जीव वहां जन्म ही लेता है। इसी प्रकार आनतादि स्वर्गके देवोंके भी मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व नहीं होता, उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला कोई जीव यदि भोगभूमि या आनतादि स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाला होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका घात करके ही उत्पन्न हो सकता है। उत्कृष्ट अनुभागसे अतिरिक्त अनुत्कृष्ट अनुभाग कहते हैं और ऐसा अनुभाग प्रायः सभी मोही जीवों के पाया जाता है। १७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीककर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक किसी भी जीवके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? किसी भी जीवके होता है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदी, चारों कषायवाले, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, सज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टानुभागविभक्ति किसके होती है ? जो मनुष्य, मनुष्यिनी, उक्कस्साणुभागसंतकम्मं णस्थि तं घादिय विट्ठाणियं करिय पच्छा एदेसुप्पीदो । ण च.तस्थ उक्कस्साणुभागबंधो वि अस्थि, तेउपम्मसुक्कलेस्साहि तिरिक्ख-मणुस्सेसु सुक्कलेस्सियाए देवेसु च उक्कस्साणुभागबंधभावादो।" ज० ध० अनु० वि० । " तथा चोक्तं पञ्चसंग्रहमुलटीकायाम्-'सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयो!त्कृष्टमनुभागं विनाशयन्ति अपि तु क्षपकः सम्यग्दृष्टिविनाशयति उभयोरपि दृष्टयोरिति । मिथ्यादृष्टिः पुनः सर्वासामपि शुभप्रकृतीनां संक्लेशेनाशुभप्रकृतीनां तु विशुद्धया अन्तर्मुहूर्तात्परतः उत्कृष्टमनुभागमवश्यं विनाशयति ॥५६॥ कर्मप्र. संक्र० - अणुभागं अन्नयरो सुहुमअपज्जतगाइ मिच्छो उ। वज्जिय असंखवासाउए च मणुप्रोववाए य ॥५३॥ केवलमसंख्येयवर्षायुषो मनुष्यतिर्यञ्चो ये च देवाः स्वभवाच्च्युत्वा मनुष्येषु उत्पद्यन्ते तांश्च मनुष्योपपाताः अानतप्रमुखान् देवान् वर्जयित्वा । एते हि मिथ्यादृष्टयोऽपि नाशुभप्रकृतीनामुक्तस्वरूपणामुत्कृष्टमनुभागं 'बध्नन्ति, संक्लेशाभावात् ॥ कमप्र० संक्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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