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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्ती सामित्तं ११ पदपरिवत्तणेण णिग्गमणपवेसेहि य तदुवलंभादो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारमग्गणा चि । १६. सामित्तं दुविहं – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सोओघे० आदेसे ० | ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स उक्कस्साणुभागं बंधिदू जाव ण हदि ताव सो एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चउरिंदि वा असणिपंचिंदिश्रो वा अण्णदरस्स जीवस्स अण्णदरगदीए वट्टमाणस्सं । असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु मणुसोववादियदेवेसु च णत्थि । अणुक्कस्साणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स । I पदपरिवर्तनकी अपेक्षा और नरकसे निकलने और नरक में प्रवेश करनेका अपेक्षा उत्कृष्ट आदि चारोंका सादि और अध्रुवभाव बन जाता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिये । विशेषार्थ - घसे मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में होता है, अतः वह सादि और अध्रुव है । उससे पहले अजघन्य अनुभाग होता है अतः जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक नहीं हुए उनके अजघन्य अनुभाग अनादि है । भव्य की अपेक्षा वह अध्रुव है और भव्य की अपेक्षा ध्रुव है । तथा उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामी मिध्यादृष्टि होता है और तब तक ही उसका सत्त्व रहता है जब तक उसका घात नहीं करता, अतः वह सादि और अध्रुव है । उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के पश्चात् जो बन्ध होता है उसे अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कहते हैं, अतः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी सादि और अध्रुव ही होता है । मार्गणाओंमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रुव ही होते हैं, क्यों कि एक तो मार्गणाऐं बदलती रहती हैं और दूसरे कोई मार्गणा नहीं भी बदलती है जैसे अभव्य तो उनमें उत्कृष्ट आदि पद बदलते रहते हैं, अतः मार्गणाओं में उत्कृष्ट आदि चारोंके सादि और अध्रुव ये दो पद ही सम्भव हैं। $ १६. स्वामित्व दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व से प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— प्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जो जीव उसका जब तक घात नहीं करता है तब तक वह एकेन्द्रिय हो या दोइन्द्रिय हो या तेइन्द्रिय हो या चौइन्द्रिय हो अथवा असं पच ेन्द्रिय हो किसी भी गतिमें वर्तमान किसी भी जीवके उत्कृष्ट अनुभाग होता है । किन्तु असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्यों में तथा मनुष्यों में ही जिनकी उत्पत्ति होती है उन देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता है । अनुत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? किसो भी जीवके होता है। १. उक्कोसगँ पबंधिय श्रावलियमइच्छिण उक्कस्सं । जाव ण घाएह तयं संकामइ श्रमुहुरांता ॥१२॥ मिथ्यादृष्टिरुत्कृष्टमनुभागं बद्ध्वा तत श्रावलिकामतिक्रम्य बन्धावलिकायाः परत इत्यर्थः । तमुत्कृष्टमनुभागं संक्रमयति तावद्यावन्न विनाशयति । कियन्तं कालं यावत् पुनर्न विनाशयतीति चेत् उच्यते - मुहूर्तान्तः - श्रन्तमुहूतं यावदित्यर्थः । परतो मिथ्यादृष्टिः शुभ प्रकतीनामनुभागं संक्लेशेन श्रशुभप्रकृतीनां तु विशुद्धयाऽवश्यं विनाशयति ॥ ५२ ॥ कर्मप्र० संक्र० । “मिच्छतस्स उक्कस्लाणुभाग संतकम्मं कस्स ? उक्कस्सारणुभागं बंधिदूण जाव ण हादि ताव सो होज्ज एइंदिश्रो वा बेइंदिओ वा तेइंदिश्रो वा चउरिंदिओ वा असरणी वा सरणी वा । श्रसंखेज्जवरसाउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च णत्थि ।” चू० सू० २. " श्रसंखेज्जवस्सा उएस इति वुत्ते भोगभूमियतिरिक्खमगुस्साएं गहणं । ............. वादियदेवे शिवुरो श्राणदादि उवरिमसव्वदेवाणं गृहणं मणुस्सेसु चेव तेसिमुपती दो ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only 'मनुस्सोव"एदेसु www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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