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________________ १० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १३. उक्स्साणुक्कस्साणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह. सव्वुक्कस्सओ अणुभागो उक्कस्सविहत्ती। तदणमणुक्कस्सविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति; आदेसुक्कस्सस्स सव्वत्थ संभवादो। १४. जहण्णाजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह. सव्वजहण्णो अणुभागो जहण्णविहत्ती। तदुवरिमा अजहण्णविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए ति; आदेसजहण्णस्स सव्वत्थ संभवादो। . १५. सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो जिद्द सो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मोह० उक्कस्स-अणुकस्स-जहण्णअणुभागविहत्ती किं सादिया किमणादिया कि धुवा किधुवा वा ? सादि-अधुवा। अज० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा वा ? अणादिया धुवा अधुवा वा । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुक्क० ज० अज० [किं सादि०] किमणादि० किं धुवा किम वा ? सादि-अधुवा । १३. उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है ओघ निर्देश और आदेश निर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सर्वोत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्टविभक्ति है और उससे न्यून अनुभाग अनुत्कृष्टविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणां तक ले जाना चाहिये, क्योंकि आदेश उत्कृष्ट अनुभाग सब जगह सम्भव है। १४. जघन्य अनुभागविभक्ति और अजघन्य अनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सबसे जघन्य अनुभाग जघन्यविभक्ति है और उससे ऊपरके अनुभाग अजघन्य विभक्ति हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये, क्योंकि आदेश जघन्य अनुभाग सब जगह संभव है। विशेषार्थ-यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका विचार करते समय आदेश उत्कृष्ट की और जघन्य-अजघन्य अनुभाग विभक्तिका विचार करते समय आदेश जघन्यकी सम्भावना प्रकट की है सो उसका यही अभिप्राय है कि जिन मार्गणाओंमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और ओघ जघन्य अनुभागविभक्ति सम्भव नहीं है वहां जो सबसे उत्कृष्ट अनुभाग हो उसे आदेश उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और जो सबसे कम अनुभाग हो उसे आदेश जघन्य अनुभाग विभक्ति जानना चाहिए। उदाहरणस्वरूप आभिनिबोधिक ज्ञानमें एकस्थानिक और द्विस्थानिक यह दो प्रकारकी अनुभागविभक्ति ही सम्भव है, इसलिए यहां उत्कृष्ट से आदेश उत्कृष्ट द्विस्थानिक अनभागविभक्ति ली गई है। तथा सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य अनुभागविभक्ति भी द्विस्थानिक सम्भव है, इसलिए वहां जघन्यसे आदेश जघन्य अनुभागविभक्ति ली गई है। इसी प्रकार सर्वत्र जहाँ जो सम्भव हो उसे घटित कर लेना चाहिए। ६ १५. सादि अनुभागविभक्ति, अनादि अनुभागविभक्ति, ध्रुवअनुभागविभक्ति और अध्रुवअनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघ की अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि अध्रुव है। अजघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रव है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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