SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए सव्वणोसव्वविहत्ती एइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-सव्वपंचकाय-तसअपज्ज०-ओरालियमिस्स०वेउन्विय०-वेवियमिस्स०--कम्मइय०-तिण्णिवेद-तिण्णिअण्णाण-असंजद-पंचलेस्साअभवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारि ति । आणदादि जाव सव्वसिद्धि ति जहण्णाजहण्णअणुभागविहत्ती वेढाणिया। एवं आहार०-आहारमि०-अकसा०-परिहार०जहाक्खाद०-संजदासंजद-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०दिहि त्ति । अवगदवेदेसु मोह० ज० एगहाणिया। अज० एगहाणिया विहाणिया वा । एवमाभिणि-सुद० ओहि०-मणपज्ज०--संजद०--सामाइय-छेदो०--सुहुमसांपराय--अोहिदंस०--मुक्कले०सम्मादि०-खइय०दिहि ति। एवं जहणिया हाणसण्णा समत्ता। १२. सव्वविहत्ति-णोसव्वविहत्तियाणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघे० मोह० सव्वफद्दयाणि सव्वविहत्ती। तदूर्ण पोसव्वविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । स्वर्ग तक देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहरकमें जानना चाहिये । प्रानत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति द्विस्थानिक ही होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यात. संयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें जानना चाहिये। अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और द्विस्थानिक होती है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिये । अर्थात् इनमें मोहनीयकमकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक और द्विस्थानिक होती है । इस प्रकार जघन्य स्थानसंज्ञा समाप्त हुई। ६ १२. सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्तिकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके सब स्पर्धक सर्वविभक्ति हैं और उनसे न्यून स्पर्धक नोसर्वविभक्ति हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ-सर्वविभक्तिसे आशय है सब भेद-प्रभेद । अर्थात् सब भेद-प्रभेदोंके समूहको सर्वविभक्ति कहते हैं और उस समूहमेंसे यदि एक भी भेद कम हो तो उसे नोसर्वविभक्ति कहते हैं। अतः मोहनीयकर्मके जितने स्पर्धक हैं उनका समूह सर्वविभक्ति कहा जाता है और उस समूहमेंसे यदि एक भी स्पर्धक कम हो तो उसे नोसर्वविभक्ति कहते हैं। सारांश यह है कि सर्वविभक्ति केवल सब स्पर्धकोंका समूह ही है और उस समूहसे कम स्पर्धक नोसर्वविभक्ति हैं। सब मार्गणाओंमें सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्तिका यही क्रम समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy