SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ भागवित्ती समुप्पत्तियद्वाणाणि णत्थि त्ति कुदो णव्वदे ? एत्थेव कसायपाहुडे अणुभागसंकमो णाम अत्याहियारो, तत्थ चडवीसअणियोगद्दारेषु सभुजगार - पदणिक्खेव - वड्डीसु समत्तेस पुणो अणुभागद्वाणपरूवणं कुणदि - - एतो द्वाणाणि कादव्वाणि । जहा संतकम्मट्ठाण परूवणा कदा संकमद्वाणपरूवणा कायव्वा । उक्कस्सए अणुभागबंधहाणे एगं संतकम्मं तमेगं संकमद्वाणं । दुरिमे अणुभागबंधाणे एवमेव । एवं ताव जाव पच्छाणुपुवीए पढममणंतगुणहीणबंधद्वाणमपत्तं ति । पुव्वाणुपुव्वीए गणिज्जमाणे जं चरिममणं तगुणं धाणं तस्स हा अणंतरमणंतगुणहीणं एदम्मि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि वादहाणि । ताणि संतमद्वाणाणि । ताणि चैत्र संकमद्वाणाणि । तदो पुणो बंधहाणाणि च संकमद्वाणाणि च ताव तुल्लाणि जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणं बंधद्वाणं । विदियस्तगुणहीणबंधद्वाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घाहाणाणि । एवमणंतगुणहीणबंध द्वाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्ज लोगमेत्ताणि घादहाणाणि भवंति थि अम्हि कहि वित्ति एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवडूमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदम -- लोहज्ज - जंबुसामियादि -- आइरियपरंपराए आगंतॄण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखु-- नागहत्थीहिंतो जइवसहायरियमुवणमिय चुण्णिमुत्तायारेण परिणदद्दिव्वज्भुणिकिरणादो णव्वदे ।) एदाणि हदसमुप्पत्तिय ३८८ गुणहानि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि के अन्तरालों में हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं होते यह कैसे जाना ? समाधान- इसी कसा पाहुडमें अनुभागसंक्रम नामका अर्थाधिकार है । उसमें भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि अधिकार के साथ साथ चौबीस अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर अनुभागस्थानका कथन इस प्रकार है - अब संक्रमस्थानका कथन करना चाहिये। जिस प्रकार अनुभाग सत्कर्मस्थानोंका कथन किया है उसी प्रकार संक्रमस्थानों का भी कथन करना चाहिये । उत्कृष्ट बन्धस्थान में एक सत्कर्म है वह एक संक्रमस्थान है । द्विचरम अनुभागबन्धस्थान में भी इसी प्रकार पचादानुपूर्वीके क्रमसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक प्रथम अनन्तगुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त हुआ है । पूर्वानुपूर्वी से गिनने पर जो अन्तिम अनन्तगुण बन्धस्थान और उससे नीचे अनन्तर अनन्तगुणा हीन बन्धस्थान है इस बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान उत्पन्न होते हैं। ये सत्कर्मस्थान हैं और ये ही संक्रमस्थान हैं। इसके बाद पश्चादानुपूर्वी से दूसरे अनन्तगुणहीन बन्धस्थान पर्यन्त बन्धस्थान और संक्रमस्थान बराबर हैं । दूसरे अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके ऊपरके अन्तर में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं । इस प्रकार अनंतगुणहीन बन्धस्थानके ऊपरके अन्तर में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं अन्य में नही होते, इस प्रकार विपुलाचलके ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकरसे निकल कर गौतम, लोहाय, जम्बूस्वामी आदि आचार्य परम्परासे आकर, गुणधराचार्यको प्राप्त होकर वहां गाथा - रूपसे परिणमन करके पुनः आर्यमक्षु और नागहस्ती आचार्य के द्वारा आचार्य यतिवृषभको प्राप्त होकर उक्त चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनिरूपी किरण से जाना जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy