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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३८७ यदानो रूवूणछट्टाणमेत्ताओ हदसमुप्पत्तियहाणपंतीओ पादेकमुप्पादेदव्वाओ। णवरि सुहमणिगोदअपज्जत्तबंधसमुप्पत्तियजहण्णसंतहाणादो उवरि संखेज्जअ कन्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियहाणाणि ण उप्पजति । कुदो ? साहावियादो। को सहावो ? अंतरंगं कारणं । ण च एस णाओ अप्पसिद्धो, उक्कस्साणुभागघादहाणीदो तस्सेव्वुकस्सिया वड्डी विसेसाहिया ति एवमादीसु एदस्स संववहारस्स पसिद्धिदंसणादो । अणुभागस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा । तस्सेवुक्कस्सिया वडी विससाहिया ति णव्वदे महाबंध-कसायपाहुडसुत्तेहिंतो। एत्थ पुण संखेजह कुव्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियहाणाणि णत्थि ति परूवयसुत्तेण विणा सहाओ दुरहिगम्मो ति ) एत्थ परिहारो वुच्चदे । सव्वत्थोवा हाणी। वड्डी विसेसाहिया त्ति जं सुत्तं तं कमाकमवडिहाणीओ अस्सिदण जेणावहिदं तेण दोण्हं पि अत्थाणमेदं चेव सुत्तं ति घेत्तव्यं । अक्कमवडि-हाणीमु पसिद्धं सुत्तं एत्थ वि होदि ति कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धआइरियवयणादो। अहकुव्वंकाणं विचालेसु व अणंतभागवडि-हाणि-असंखे भागवडि-हाणिसंखे० भागवडि--हाणि--संखे०गुणवडि-हाणि--असंखेजगुणवडि--हाणीणं विच्चालेसु हदअष्टांक और उर्वकके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी घाताध्यवसायस्थानप्रमाण लम्बी और संख्यामें एक कम षट्स्थानप्रमाण अलग-अलग पंक्तियाँ उत्पन्न करनी चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके बन्धसमुत्पत्तिक जघन्य सत्त्वस्थानसे ऊपर संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। शंका-स्वभाव किसे कहते हैं ? समाधान-अन्तरंग कारणको स्वभाव कहते हैं। शायद कहा जाय कि यह जो उपपत्तिकी गई है कि संख्यात अष्टांक और उर्वकके बीच में स्वभावसे ही हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह असिद्ध है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभागघातकी उत्कृष्ट हानिसे उसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक होती है इत्यादिमें इस व्यवहारकी प्रसिद्धि देखी जाती है। शंका-अनुभागकी उत्कृष्ट हानि थोड़ी है। उसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है यह बात महाबन्धसे और कषायपाहुड़के चूर्णिसूत्रसे जानी जाती है। किन्तु यहां तो संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं होते हैं ऐसा कथन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है, अत: उसके विना स्वभावका जानना कष्टसाध्य है। समाधान-इस शंकाका समाधान करते हैं-हानि सबसे स्तोक है, वृद्धि उससे विशेष अधिक है यह सूत्र यतः क्रम और अक्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिको लिये हुए अवस्थित है, अतः दोनों ही अर्थोके सम्बन्धमें यही सूत्र है ऐसा मानना चाहिये। शंका-जो सूत्र अक्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिके अर्थमें प्रसिद्ध है वही सूत्र यहां भी लगता है यह कैसे जाना ? समाधान-सूत्रसे अविरूद्ध आचार्य वचनोंसे जाना। शंका-अष्टांक और उर्वकके बीचकी तरह अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि, असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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