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________________ २२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स एक्को चेव भंगो, अणुक्कस्साणुभागाभावादो। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचितिरि०-- अपज्ज०-भवण०-वाण-जोदिसि मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्साणुभागस्स अह भंगा वतव्वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं उक्कस्साणुभागस्स दो भंगा। आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुकस्साणु० णियमा अत्थि । सम्मत्तस्स ओघभंगो । सम्मामि० उकस्साणु० णियमा अस्थि । भंगो एको चेव । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ___$ ३४४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-अहकसा० जहण्णाजहण्णाणु० णियमा अत्थि । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणुचउक्क०-चदुसंज०-णवणोक० जहण्णाणुभागस्स सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया । एत्थ तिण्णि भंगा। अज० अणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । एत्थ वि तिषिण भंगा वतव्वा । ३४५. आदेसेण णेरइएसु सत्तावीसं पयडीणं जहण्णाजहण्णाणुभागस्स तिण्णि भंगा । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज० देवोघं च । विदियादि न्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका एक ही भङ्ग होता है, क्योंकि इन नरको में उसका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता। इसोप्रकार पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयानिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवो में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके आठ भङ्ग कहने चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके दो भङ्ग होते हैं । आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त छब्बीस प्रकृतियों का उकृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है सम्यक्त्वके भंग ओघ की तरह होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है। भंग एक ही है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ३४४. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले नियमसे होते हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुक, चारो संज्वलन और नव नोकषायों के जघन्य अनुभागके कदाचित् सब जीव अविभक्तिक अर्थात् जघन्य अनुभागसे रहित होते हैं। यहाँ तीन भंग होते हैं-एक भंग पूर्वोक्त और दो ये-कदाचित् अनेक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित और एक जीव उससे सहित होता है। कदाचित् अनेक जीव उससे रहित और अनेक जीव उससे सहित होते हैं। अजघन्यकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं। यहाँ भी तीन भंग कहने चाहिये। ३४५. आदेशसे नारकिया में सताईस प्रकृतियो के जधन्य और अजघन्य अनुभागके तीन भंग हाते हैं। कदाचित् सब जाव जवन्य अनुभागसे रहित, कदाचित अनेक जीव रहित और एक जाव सहित, कदाचित अनेक जोव रहित और अनेक जोर सहित । अजयन्य के इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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