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________________ www.aai गा० २२) अणुभागविहत्तीए भागाभागो २२१ जाव सत्तमि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. जहण्णाजहण्णाणु० णियमा अस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० एको चेव भंगो, अजहण्णाणुभागविहत्तिएहि मोत्तण अण्णेसिं तत्थाभावादो । तत्थ जहण्णाणुभागेण विणा कथमजहण्णत्तमणुभागस्स । ण, ववएसिवन्भावेण तत्थ तस्स सिद्धीदो। अणंताणु० चउक्क० ओघं । एवं जोदिसि । तिरिक्खा एवं चेव । णवरि सम्मत्त० ओघं । जोणिणी पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। भवण-वाण. पढमपुढवि०भंगो। णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । सोहम्मादि जाव सव्वसिद्धि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्ण. णियमा अस्थि । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० ओघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति। $ ३४६. भागाभागो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसपयडीणमुक्कस्साणुभागविहविपरीत समझना । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवों में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोका जघन्य और अजघन्य अनुभाग नियमसे होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक ही भंग होता है, क्योकि अजघन्य अनुभागविभक्तिसे सहित जीवों को छोड़कर अन्य भंगोका वहाँ अभाव है। - शंका-जब जघन्य अनुभागका अभाव है तो उसके बिना वहाँके अनुभागका अजघन्यपना कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि व्यपदेशिवद्भावसे अर्थात् अजघन्य अनुभागके समान अनुभागमें अजघन्यका व्यपदेश कर लेनेसे वहाँ अजघन्य अनुभाग पद संभव है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भंग ओघके समान होते हैं। इसी प्रकार ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें भी इसीप्रकार भंग होते हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वके भंग ओघकी तरह जान लेना चाहिए। तिर्यञ्चयोनिनियोंमें पञ्चेन्द्रिय तियञ्चो के समान भंग होते हैं। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्टके समान भंग होते हैं। भवनवासी और व्यन्तरोंमें पहली पृथिवीके समान भंग होते हैं। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य नहीं होता । सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग नियमसे होता है। सम्यक्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ... विशेषार्थ-यद्यपि जघन्य और अजघन्य दोनों सापेक्ष हैं और इसलिये जघन्यके अभावमें अजघन्यका व्यवहार नहीं हो सकता तथापि दूसरे आदि नरकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जो अनुभाग पाया जाता है वह अन्यत्र पाये जानेवाले अजघन्य अनुभागके समान होता है, अत: उसे अजघन्य कह देते हैं। ६३४५. भागाभाग दो प्रकारका है-जवन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-आप और आदेश। आपसे छम्बोस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिपाले जो सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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