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________________ ३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ण, कसायुदय हाणाणं व विसोहिहाणवडिहाणीणमभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणंतिम भागं मोत्तूण गुणगारभागहाराणं सव्वजीवरासिपमाणत्तासंभवादो। ण च कारणगुणगार-भागहारेहितो कजगुणगार-भागहाराणं पुधभावसंभवो, विरोहादो। पुणो अण्णेण जीवेण तिचरिमविसोहिहाणपरिणएण चरिमुव्वंके घादिदे तदियमणंतभागवड्रिहाणमुप्पज्जदि । पुणो अवरेण चदुचरिमविसोहिहाणपरिणदेण पज्जवसाणुव्वंके धादिदे चउत्थमणंतभागवड्डीए घादहाणमुप्पज्जदि। एवं कंडयमेत्ताणि अणंतभागहीणविसोहिहाणाणि हेट्टा ओसरिय हिदअसंखेन्जभागहीणविसोहिहाणपरिणएण चरिमुव्वंके घादिदे घादहाणेसु कंडयमेत्त अणंतभागवड्डीओ उवरि गंतूण पढममसंखेजभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । एत्थ वडिभागहारो असंखेज्जा लोगा । कुदो ? मुत्ताविरुद्धगुरुवयणादों। एवं विलोमेण हिदएगेगविसोहिहाणेण चरिमुव्वंके घादिदे असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुत्पत्तियहाणाणि अप्पिदअकुव्वंकाणं विच्चाले उप्पज्जति । णवरि घादहाणेसु घादघादहाणेसु च सव्वजीवरासिगुणगारो भागहारो वे त्ति ण वत्तव्यं । कुदो ? घादहाणे सव्वजीवरासिणा गुणिदे उक्कस्सबंधहाणादो अणंतगुणघादहाणसमुप्पत्तीदो । ण च बंधहाणादो घादहाणमणंतगुणं होदि, विरोहादो । एदेसिमसंखेज्जलोगमेत्तउव्वंक शंका-यहां पर वृद्धिका भागाहार सर्व जीवराशि है ऐसा क्यों नहीं माना ? समाधान-नहीं, क्योंकि कपायके उदयस्थानोंको तरह विशुद्धि स्थानोंकी वृद्धि और हानि का गुणकार और भागहार अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाणको छोड़कर सर्वराशिप्रमाण नहीं बन सकता है। अर्थात् जैसे कषायके उदयस्थानोंकी वृद्धि-हानिका गुणकार और भागहार अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है वैसा ही विशुद्धिस्थानों में भी जानना चाहिये, क्योंकि कषाय दयस्थान कारण हैं और विशुद्धि स्थान उनके कार्य हैं और कारगणके गुणकार और भागहारोंसे कार्यके गुणकार और भागहार जुदे नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है। पुन: त्रिचरम विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए किसी अन्य जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर तीसरा अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। पुन: चतु:चरम विशुद्धि स्थानसे परिणत हुए अन्य जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए चतुर्थ घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण अनन्तभाग हीन विशुद्धि स्थान नीचे उतरकर स्थित असंख्यात भाग हीन विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर घातस्थानोंमें काण्डकप्रमाण अनन्तभाग वृद्धियां ऊपर जाकर पहला असंख्यात ख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। यहां पर असंख्यातभागवृद्धिका भागहार असंख्यात लोक है, क्योंकि सूत्रके अविरुद्ध गुरुके ऐसे वचन हैं। इस प्रकार विलोसक्रमसे स्थित एक एक विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जानेपर विवक्षित अष्टांक और उर्वकके बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। इतना विशेष है कि घातस्थानांमें और घातघातस्थानोंमें गुंणकार और भागहारका प्रमाण सर्व जीवराशि है ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि घातस्थानको सर्व जीवराशिसे गुणा करने पर उत्कृष्ट बन्धस्थानसे अनन्तगुणे घातस्थानकी उत्पत्ति होती है। किन्तु बन्धस्थानसे घातस्थान अनन्तगुणा नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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