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________________ ३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ अंतोमु०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्ते णन्भहियाणि वेसागरोवमसहस्साणि । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदिय अपज्जत्तभंगो । ४६. जोगाणुवादेण पंचमण०-- पंचवचि० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क ० एगसमओ | अज० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । कायजोगि० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियकाय ० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस०, उक्क० बावीसवास सहस्साणि देणाणि । ओरालियमिस्स० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । वेडव्वियकाय ० मोह० जहण्णाणु० ज० एस ०, तोमु० । अज० ज० एस ०, उक्क० तो० । वेडव्वियमि० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जहण्णुक्क० तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल त्रसोंमें क्षुद्रभवग्रहण और त्रस पर्याप्तकों में अन्तर्मुहूर्त है । और उत्कृष्ट नसोंमें पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर और त्रस पर्याप्तकों में केवल दो हजार सागर है । त्रसकायिक अपर्याप्तकों में पच ेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग होता है। उक्क० O विशेषार्थ - पृथिवी आदि चारों कार्योंके भेद-प्रभेदोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल पूर्ववत् एकेन्द्रियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । जिनमें जघन्य काल कुछ कम कहा है उनमें जघन्य अनुभाग के कालको दृष्टिमें रखकर कहा है । अर्थात् जघन्य अनुभागवाला उनमें जन्म लेकर यदि अनुभागको बढ़ा ले तो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम अपनीअपनी जघन्य स्थितिप्रमाण होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकमें जानना चाहिए। त्रस और स पर्याप्तकके क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समय में जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । $ ४६. योगकी अपेक्षा पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । काययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। श्रदारिककाययोगियोंमें मोहनीयकर्म की जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम वाईस हजार वर्ष है । औदारिक मिश्रकाययोगियों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा श्रजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । वैक्रियिककाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिकमिश्र - काययोगियों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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