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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०संजदे ति । $ ६१. जहएणए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मोह. जहएणाणु० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो। अज. सव्वजी० केव० ? अणंता भागा। एवं कायजोगि० ओरालि०-णqस०-चत्तारिकसाय०-अचक्खु०भवसि०-आहारि ति । $ ६२. आदेसेण णेरइएस मोह० जहणणाणु० सव्वजीव० केव० ? असंखे०भागो । अज० असंखेजा भागा । एवं सवणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-मणुसअपज्जादेव०-भवणादि जाव अवराइद० सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्यपंचिंदिय-सव्वछक्काय-पंचमण०-पंचवचि०-ओरालि मिस्स०-वेविय०-वेवि०मिस्स०-कम्मइय०इत्थि-पुरिस-मदि०-मुद०-विहंग०-आभिणि०-मुद०-ओहि०-संजदासंजद०-असंजद०चक्खु०-ओहिदंस०--छलेस्सा०--अभवसि०-छसम्मत्त०-सण्णि-असएिण-अणाहारि अपगतवेदी, कषायरहित, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकी आदि मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले यद्यपि असंख्यात हैं फिर भी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्या भाग ही हैं। इसीसे इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं। मनुष्यपर्याप्त आदिमें दोनों विभक्तिवाले संख्यात हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं। ६९१. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवेंभाग हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवों के कितने भाग हैं ?अनन्तहुभाग ब हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारकों में जानना चाहिए। विशेषार्थ ओघसे और उक्त मार्गणाओंमें जघन्य अनुभागविभक्तिवाले संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले अनन्त हैं, अतः उक्त प्रकारसे भागाभाग बन जाता है। आगे भी इसी प्रकार संख्या जान कर भागाभाग घटित कर लेना चाहिए। ६९२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य, मनुष्यअपयाप्त,सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब अण्कायिक, सब तैजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब त्रसकायिक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, अभव्य, छहों सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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