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________________ ६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६८. खेत्ताणुगमो दुविहो-जहएणओ उक्कस्सओ चेदि । उक्स्स ए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघे० आदेसे०। ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहतिया केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । अणुक० सव्वलोगे। एवं तिरिक्रवोघं एइंदिय-बादरेइंदिय[बादरेइंदियपज्जत्तापज्ज-सुहुमेइं दिय-] सुहुमेइंदियपज्जतपज्जत्त-पुढवि० बादरपुढवि०बादरपुढविअपज ०--सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०--बादरआउअपज्ज ०-सुहुमआउ०-सुहुमाउपजत्तापजत्त०-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०सुहुमतेउ०--मुहुमतेउपज्जत्तापज्ज०--वाउ०--बादरवाउ०--बादरवाउअपज्ज०--सुहुमवाउ०मुहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि-बादरवणप्फदि--बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ ओघसे क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग रहना है, और एस जीवों की संख्या संख्यात है. अत: श्रावस जघन्य असमागवाल जीवांका परिमाण संख्यात कहा है और शेष अनन्त जीव अजघन्य अनुभागवाल होते है । काययोगी आदि जिन मार्गणाओंमें विवक्षित जीवराशिका प्रमाण अनन्त है और क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, उनमें जघन्य और अजधन्य अनुभागवालों का परिमाण ओघके समान ही जानना चाहिये। तिर्यञ्चगति आदि जिन मार्गणाओंमें जीवराशिका प्रमाण अनन्त है और जघन्य अनुभाग हतसमुत्पत्तिककर्मा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके होता है उनमें दोनों ही अनुभागवालोंका परिमाण अनन्त कहा है । तथा नरकगतिसे लेकर पद्मलेश्यापर्यन्तकी असंख्यात राशिवाली मार्गणाओंमें दोनों अनुभागवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। सामान्य मनुष्य आदि संज्ञी मार्गणा पर्यन्त जिन मार्गणाओंमें जीवराशिका प्रमाण तो असंख्यात ही है, किन्तु जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिमें या उपशमश्रेणिसे गिरे हुए जीवोंके होता है, उनमें जघन्य अनुभागवालोंका परिमाण संख्यात कहा है और अजघन्य अनुभागवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। तथा मनुष्यपर्याप्त आदि संख्यात जीवराशिवाली मार्गणाओंमें दोनों अनुभागवालोंका परिमाण संख्यात कहा है। विशेष इतना है कि इन सब मार्गणाओंमें अलग अलग स्वामित्वका विचार कर यह परिमाण ले आना चाहिए। यहाँ अलग अलग स्वामित्वका उल्लेख न कर सूचनामात्र की है। इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। १९८. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । श्रीघसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयाप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपयाप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म लैजस्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सुक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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