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________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ कम्मस्स लदासमाणफएस चेत्र अवहाणुवलंभादो । तदुवरिमडिदिसंतकम्मे सम्म - ताणुभागसंतकम्मं देसवादि चेव किंतु वेद्याणियं । एवंविहविसेस जाणावणह ण कदं जहण्णुक सविसेसणं । * सम्मामिच्छुत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वधादि दुहाणियं । ३ २०३ एत्थ जहण्णुक्कस्साणुभागसंतकम्मविसेसणं किण्ण कयं ? ण, तस्स फलाभावादो | सम्मामिच्छते खविज्जमाणे चरिमाणुभागकंदए सम्मामिच्छत्तस्स जहमणुभाग-संतकम्मं तं पि सव्वधादि दुहाणियं चेत्र । तदणुभागफ द्दएस अक्खवणावत्थाए खवणावत्थाए वा देसघादीणं फट्ट्याणमभावादो । उक्कस्साणुभागसंतकम्मं पि सव्वादि दुहाणियं चैव, तेण जहण्णुक्कस्साणुभागाणं दुट्टाणियसव्त्रघादित्तणेहि विसेसो स्थिति कयं जहण्णुक्क सविसेसणं | * एक्कं चेव ठाणं सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स । २०४. एक्कं दारुसमाणाणुभागहाणं चैव होदि, लढा -अहि-- सेलसमाणाणु-भागफद्दयाणं तत्थ अभावादो । एगद्वाणमिदि वृत्ते सव्वत्थ लदासमाणफद्रयाणं चेत्र जेण गहणं तेणेत्थ वि 'एक्कं चैव द्वाणं' इदि वृत्ते लदासमाणफयाणं गहणं किरण कीरदे ? ण, तराइक्कंतसुत्तेण 'सम्मामिच्छत्ताणुभागसंतकम्मं सव्वघादि दुट्ठाणियं' और स्थानिक भी है। सम्यक्त्वकी आठ वर्षं प्रमाण स्थिति शेष रहनेपर एकस्थानिक होता है, और उससे अधिक स्थिति शेष रहने पर द्विस्थानिक होता है । यह विशेष बतलानेके लिये जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण नहीं लगाये । * सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक है । २०३. शंका- यहाँ अनुभागसत्कर्मके साथ जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण क्यों नहीं लगाये ? समाधान- नहीं, क्योंकि उसका कुछ फल नहीं है । $ २०३. सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण करने पर अन्तिम अनुभागकाण्डकमें सम्यग्मिथ्यात्वका जो जघन्य अनुभागसत्कर्म है वह भी सर्वघाती और द्विस्थानिक ही है। उसके अनुभागस्पर्धकों में अक्षपरणवस्था में अथवा क्षपणावस्था में देशघाती स्पर्धककोंका अभाव है । तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म भी सर्वाती और द्विस्थानिक ही है । अतः जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागों में द्विस्थानिकपने और सर्वघातिपनेकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है अर्थात् दोनों ही अनुभाग सर्वघाती और द्विस्थानिक हैं, इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट विशेषरण नहीं लगाये । * सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका एक ही स्थान होता है । २ २०४. सम्यग्मिथ्यात्वका एक दारुसमान अनुभागस्थान ही होता है क्योंकि लतासमान, अस्थिसमान और शैलसमान अनुभाग स्पर्धकों का उसमें अभाव है । शंका- 'एकस्थान' ऐसा कहने पर उससे सब जगह लतासमान स्पर्धकों का ही ग्रहण होता है अतः यहाँ पर भी 'एकही स्थान' ऐसा कहनेसे लतासमान स्पर्धकों का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा अर्थ ग्रहण करने पर पहले कहे गये 'सम्यग्मिथ्यात्वका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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