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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए सामित्तं १७३ २५५. सुगमं । ® पुरिसवेदेण उवहिवस्स चरिमसमयअसंकामयस्स । ... $ २५६. पुरिसवेदोदएण खवगसेढिं चढिय अढकसाए खविदूण अंतोमुहुत्तेण अंतरकरणं करिय पुणो अंतोमुहुत्तेण णqसयवेदं पुरिसवेदम्मि संछुहिय तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण इत्थिवेदं पि पुरिसवेदसरूवेण संकामिय तत्तो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण छएणोकसाएहि सह पुरिसवेदचिराणसंतकम्मं कोधसंजलणे संकामिय समयूणदोआवलियमेत्तकालमुवरि चढिदूण हिदो चरिमसमयअसंकामओ णाम । तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं । कुदो ? देसघादिएगहाणियत्तादो । दुचरिमसमयअसंकायम्मि किरण जहएणसामित्तं दिएणं ? ण, चरिमाणुभागबंधं पेक्खिदूण दुचरिमादिअणुभागबंधाणमणंतगुणत्तादो। परोदएण किरण दिएणं ? ण, तत्थ चरिमसमयसंकामयस्स सव्वघादिवेढाणियअणुभागस्स जहण्णत्तविरोहादो। एत्थ पुरिसवेदेण उवहिदस्से त्ति ण वत्तव्यं, कोधसंजलणस्सेव चरिमसमयअसंकायमस्से त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो, विसेसालंबणाए सोदयग्गहमेण विणा जहण्णाणुभागसिद्धी चरिमसमयअसंकामयम्मि $ २५५. यह सूत्र सुगम है। * पुरुषवेदके उदयसे आपकश्रेणि पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके होता है। २५६. पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़कर, आठ कषायोंका क्षपण करके, अन्तमुहूर्तमें अन्तरकरण करके, पुन: अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेदको पुरुषवेदमें क्षेपण करके, उसके बाद अन्तर्मुहून बिताकर स्त्रीवेदको भी पुरुषवेदरूपसे संक्रमाकर, उसके बाद अन्तर्मुहूर्त बिताकर छ नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका संज्वलन क्रोधमें संक्रमण करके जो एक समय कम दो आवलीमात्र काल ऊपर चढ़कर स्थित है उसे अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक कहते हैं । उसके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है, क्योंकि वह देशघाती और एकस्थानिक होता है। शंका-उपान्त्य समयवर्ती असंक्रामकको जघन्य अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं दिया ? समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तिम अनुभागबन्धको देखते हुए उपान्त्य आदि समयमें होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा होता है। शंका-परके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेको पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया? समाधान-नहीं, क्योंकि वहां चरमसमयवर्ती संक्रामकके सर्वघाती विस्थानिक अनुभाग रहता है, अतः उसके जघन्य अनभागके होनेमें विरोध आता है। _ शंका-यहाँ 'पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेके' ऐसा नहीं कहना चाहिए, किन्तु संज्वलन क्रोधके समान 'अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके' ऐसा कहना चाहिये। .. समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विशेषकी विवक्षामें 'स्वोदयसे' ऐसा ग्रहण कये बिना अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकमें जघन्य अनुभागकी सिद्धि नहीं होती है अर्थात् जब तक वह स्वोदयसे श्रेणि पर नहीं चढ़ेगा तब तक उसके अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक अवस्थामें जघन्यअनभाग नहीं पाया जायेगा, यह बतलानेके लिए ही विशेष प्रकारका अवलम्बन लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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