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________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ण होदि ति पदुप्पायणफलत्तादो । * पवुसयवेदयस्स जहरणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २५७. सुगम । * खवगस्स चरिमसमयणवुसयवेदयस्स ? $ २५८. एदस्स मुत्तस्स अत्थो जहा इत्थिवेदस्स परूविदो तहा परूवेदव्यो। णवरि णवंसयवेदोदएण खवगसेढिं चढिय चरिमसमयणqसयवेदस्स जहएणसामित्तं वत्तव्वं । अर्थात् 'अन्तिम समयवती असंक्रामकके' न कहकर 'पुरुषवेदके उदयसे श्रेणी पर चढ़नेवाले अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके' कहा है। * नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? $ २५७. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम समयवर्ती क्षपक नपुंसकवेदीके होता है। ६२५८. जैसे स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका कथन किया है वैसे ही इस सूत्रका अर्थ कहना चाहिये। इतना विशेष है कि नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेपर अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व कहना चाहिये। विशेषार्थ तीनो मेंसे किसी भी वेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर जीव चढ़ सकता है। क्षपक श्रेणीपर चढ़नेपर अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते ही हैं। अनिवृत्तिकरणमें चार संज्वलन और नव नोकषायो का अन्तरकरण करता है। नीचे और ऊपरके निषेको को छोड़कर बीचके अन्तर्मुहर्तमात्र निषेको के अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं। अन्तरकरण जब तक नहीं करता तब तक तो तीनो मेंसे किसी भी वेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवाले जीवका सब कथन समान ही जानना चाहिए। अन्तरकरण करने पर जो जिस वेद और जिस संज्वलनकषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है उसकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्तमात्र स्थापित करके अन्तरकरण करता है। जैसे स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जीव स्त्रीवेदकी ही प्रथम स्थिति स्थापित करता है। उस प्रथम स्थितिका प्रमाण पुरुषवेदके उदय सहित श्रेणि पर चढ़नेवाले जीवके जितना नपुंसक वेदके क्षपणकाल सहित स्त्रीवेदका क्षपणकाल होता है उतना है। पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़ने वाला जीव तो पुरुषवेदके उदयसे युक्त होता हुआ ही सात नोकषायोंके क्षपण कालमें सात नोकषायोंका क्षपण करता है। बादको एक समय कम दो आवलिकालमें पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धोंको खपाता है। किन्तु स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणी पर चढ़नेवाला जीव वेदके उदयसे रहित होकर ही सात नोकषायोंका क्षपण करता है। अत: पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और छ नोकषायोंका जितना क्षपणकाल है उतनी होती है। जो जीव स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है वह जब स्त्रीवेदका अन्तरकरण करके सवेद भागके उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदकी द्वितीय स्थितिको खपाकर अन्तिम समयमें पहुँचता है और उसके स्त्रीवेदका केवल उदयगत गोपुच्छ अवशेष रहता है तब उसके स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। किन्तु अन्त समयसे पहले समयमें उसके स्त्रीवेदके सर्वघाती विस्थानिक निषेक रहते हैं अतः उसमें जघन्य सत्व नहीं बतलाया। तथा पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला नपुंसकवेद; स्त्रीवेद, छ नोकषाय और पुरुषवेदका संक्रमण करके, पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धोंको खपानेके लिए जब एक समय कम दो आवलि कालके अन्तिम समयमें वर्तमान रहता है तब उसके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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