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________________ १९८ धवलास हिदे कसा पाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ उक्क० एकतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अवद्वि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । भवणादि जाव सहस्सारो त्ति छवड्डि-छहाणीणमंतर केव० ? ज० एस० अंतोमु०, उक्क० afrat सूणा | अवडि० ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । आणदादि जाव णववज्जातिगुणहाणि० जह० तोमु०, उक० सगहिदी देसुणा । अवद्वि० जहएक० एस० । अणुद्दिस्सादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति अनंतगुणहाणि० जहएणुक० तोमु० | अवद्वि० जहरपुक्क० एस० । एवं जाणिण णेदव्वं जाव अणाहारिति । एवमंतराणुगमो समत्तो । $ १७७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण । ओघेण छवडि-दहाणि -- अवहिदाणि णियमा अत्थि । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएस्रु अनंतगुणवड्डि- - अवडि० णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । भंगा १७७१४७ एत्तिया वत्तव्वा । एवं सव्वणेरइय- सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मणुस्सतियदेव० भवणादि जाव सहस्सारो ति । मणुस्स पज्ज० सव्वपदा भयणिज्जा । भंगा एत्थ एत्तिया होंति १५६४३२२ | आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति अवधि ० णियमा अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थानका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासीसे लेकर सहस्रार कल्पपर्यन्त छ वृद्धियों और छहानियोंका अन्तर कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । स्वर्गसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्था जघन्य जौर उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ - पहले जो ओघ और आदेशसे खुलासा किया है और स्वामित्व बतलाया है उसे देखकर यहाँ अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । १७७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे छ वृद्धियाँ, छ हानियाँ और अवस्थिति नियमसे होती हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यभ्वोंमें जानना चाहिए । आदेरासे नारकियों में अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थिति नियमसे होती हैं। शेष वृद्धियाँ और हानियाँ भजनीय हैं। उनके भंग १७७१४७ इतने कहने चाहिए । इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव .और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना जाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकों में सभी पद भजनीय हैं। यहाँ उनके भंग १५९४३२२ होते हैं। नत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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