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________________ ११९ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए णाणाजीवेहि भंगविचओ अस्थि । अणंतगुणहाणि भयणिज्जा । सियो एदे च अणंतगुणहाणिविहत्ति यो च । सिया एदे च अणंतगुणहाणिविहत्तिया च । धुवभंगे पक्वित्ते तिरिण भंगा। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । देवोंमें अवस्थिति नियमसे होती है। अनन्तगुणहानि भजनीय है। कदाचित् अनेक जीव अवस्थितवाले और एक जीव अनन्तगुणहानि विभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव अवस्थितवाले और अनेक जीव अनन्तगुणहानिविभक्तिवाले होते हैं। इसप्रकार इन दो भागोंमें ध्रुवभङ्गके मिलानेसे तीन भङ्ग होते हैं । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे सब वृद्धि, सब हानि और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। इसलिए वहाँ कोई पद भजनीय नहीं कहा है । इसी प्रकार आदेशसे सामान्य तिर्यञ्चोंमें ६ वृद्धिवाले, ६ हानिवाले और अवस्थानवाले जीव नियमसे पाये जाते हैं। नारकियोंमें अनन्तगुणवृद्धिवाले और अवस्थानवाले जीव तो नियमसे रहते हैं, शेष पदवाले जीव कदाचित् पाये जाते हैं और कदाचित् नहीं पाये जाते। उनके भंग १७७१४७ होते हैं जो इस प्रकार हैं- यहाँ पर ध्रुवपद एक है और अध्रुवपद ग्यारह हैं, क्योकि पाँच वृद्धिवाले और छह हानिवाले जीव विकल्पसे पाये जाते हैं। इन ग्यारह अध्रुवपदोंके विकल्प निकालनेके लिये ११, ,१८,९,८, ७, लय १, २, ३, ४, ५, ६, ५, ४, ३, २. .१, इस प्रकार स्थापन करके नीचे स्थित १ अंक से ऊपर स्थित ११ के अंकमें ६, ७, ८, ९, १०, ११, २० भाग देने पर एक संयोगी ग्यारह प्रस्तार शलाकाएँ आती हैं। इसी प्रकार ऊपरके ग्यारह और दस अंकको परस्परमें गुणित करनेसे जो लब्ध आये उसमें नीचेके एक और दो अङ्कोंके गुणनफलसे भाग देने पर दो संयोगी प्रस्तार शलाकाएँ आती हैं। इसी प्रकार करते जाने पर प्रस्तार शलाकाओंका प्रमाण क्रमसे ११, ५५, १६५, ३३०, ४६२, ४६२, ३३०, १६५, ५५, ११, १ होता है। इनमें एक संयोगी विकल्पोंको २ से गुणा करना चाहिये, क्योंकि एक संयोगमेंकदाचित् अमुक हानि या वद्धिवाला एक जीव पाया जाता है और कदाचित् अनेक जीव पाये जाते हैं-ये दो ही भंग होते हैं। दो संयोगी प्रस्तार विकल्पोंको ४ से गुणा करना चाहिये, क्योंकि आगे आगे गुणकारका प्रमाण दुगना दुगुना होता जाता है। अत: पूर्वोक्त प्रस्तार विकल्पोंके २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२ १०२४, २०४८ गुणकार होते हैं। अपने अपने गण्य से अपने अपने गुणकारको गुणा करके जोड़ देने पर सब भंगोंका प्रमाण १७७१४६ होता है। इसमें एक ध्रुवभंगके जोड़ देनेसे कुल भंगोंकी संख्या १७७१४७ होती है। मनुष्य पिसीको १३, १२, ११, १०, ९, ८,७, ६, ५, ४, ३, है। पद विपत होत अस. १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, इस प्रकार संदृष्टि स्थापित करके ऊपर लिखे क्रमानुसार प्रस्तार शलाकाओंको उत्पन्न करके और फिर उन्हें २, ४ आदि दुगुने दुगुने गुणकारोंसे गुणा करके सबको जोड़ देने पर १५९४३२२ भंग होते हैं। श्रानत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक अवस्थितवाले जीव नियमसे होते हैं और अनन्तगुणहानिवाले जीव विकल्पसे होते हैं, अत: २ अध्रुव भंग और एक ध्रुव भंग इस तरह कुल तीन भंग होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। १. प्रा. प्रतौ णियमा अस्थि सिया इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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