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________________ (१५) भाव-मोहनीय सामान्य और उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका सर्वत्र औदायिक भाव है, क्योंकि मोहनीय कर्मके उदयमें ही इनका बन्ध आदि सम्भव है। यद्यपि उपशान्तमोहमें मोहनीयके उदयके बिना भी इनका सस्व देखा जाता है पर वहां पर नवीन बन्ध होकर इनकी सत्ता नहीं होती, इसलिए सर्वत्र औदयिकभाव कहनेमें कोई दोष नहीं है। सन्निकर्ष-मोहनीयसामान्यकी अपेक्षा सन्निकर्ष सम्भव नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागवाला जीव है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व होता.भी है और नहीं भी होता, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टिके और जिसने इनकी उद्वेलना कर दी है उसके इनका सत्त्व नहीं होता, अन्यके होता है। यदि सत्त्व होता है तो नियमसे इनके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्ववाला होता है, क्योंकि यह ससिकर्ष मिथ्यादृष्टिके ही सम्भव है और मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका मात्र उत्कृष्ट अनुभाग होता है। मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे सत्व होता है। किन्तु उसके इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छह हानियोंमेंसे किसी एक हानिको लिए हुए होता है । कारण स्पष्ट है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंमेंसे एक एकको मुख्यकर इसीप्रकार सन्निकर्ष घटित कर लेना चाहिए। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है हो वह छह प्रकारकी हानिको लिए हुए होता है। इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सस्व होता भी है और नहीं भी होता है । यदि सत्त्व होता है तो उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छह प्रकारकी हानिको लिए हुए होता है। सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सम्यक्त्वके समान ही सन्निकर्ष जानना चाहिए। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालेके सम्यक्त्वका सत्व होनेका कोई नियम नहीं है। कारण कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना सम्यग्मिथ्यात्वसे पहले हो जाती है। पर यदि उद्वेलना नहीं हुई है तो नियमसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभाग ही पाया जाता है। मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्व होता भी है और नहीं भी होता । यदि सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तमें उत्पन्न होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्वात्वकी उद्वेलनाके पूर्व मिथ्यात्वके जवन्य अनुभागको प्राप्त होता है तो उनका सत्त्व होता है अन्यथा नहीं होता। यदि सत्व होता है तो नियमसे अजवन्य अनुभागका ही सत्त्व होता है जो अपने जघन्यसे अनन्तगुणा अधिक होता है। इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका नियमसे सत्व होता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। कारण कि इनका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके सम्भव नहीं है । अाठ कषायोंका सत्व होता है जो जघन्य भी होता है और अजवन्य भी होता है। यदि अजवन्य होता है तो नियमसे छह वृद्धियोंको लिए हए होता है। मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जवन्य अनुभागका स्वामी एक है, इसलिए यहाँ ऐसा सम्भव है। श्राठ कषायों से प्रत्येक कषायको मुख्यकर सन्निकर्षका कथन मिथ्यात्वके समान ही करना चाहिए । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागवालेके बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अपने सत्त्वके साथ अजघन्य अनुभाग होता है जो अपने जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक होता है। इसके अन्य प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्वकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उसका जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए उसके उक्त इक्कीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व पाया जाता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्वका भी सत्व होता है जो सम्यक्त्वका सत्त्व अजघन्य अनन्तगुणे अनुभागको लिए हुए होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागवालेके 11 .. . . : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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