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________________ ( १६ ) मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय नियमसे अजवन्य अनन्तगुणे अनुभागवाले होते हैं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके समय इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग सम्भव नहीं है । इसके अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका सत्व तो अवश्य होता है पर उनका अनुभाग उस समय जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है क्योंकि संयोजनाके प्रथम समयमें जिस प्रकृतिके जवन्य अनुभागके योग्य परिणाम होते हैं उसका जवन्य अनुभाग होता है और शेषका अजघन्य अनुभाग होता है। यदि उस समय इन तीनका अजघन्य अनुभाग होता है तो वह छह वृद्धियोंको लिए हुए होता है। जिस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभके जघन्य अनुभागकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष कहना चाहिए। क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागवालेके तीन संज्वलन कषायोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है, क्योंकि आपणाके समय जब संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभाग होता है उस समय अन्य तीन संज्वलन प्रकृतियां अजघन्य अनुभागवाली होती हैं। संज्वलन मानके जघन्य अनुभागवालेके संज्वलन माया और लोभका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है, क्योंकि इनकी क्षपणा संज्वलन मानके बाद होती है । संज्वलन मायाके जघन्य अनुभागवालेके संज्वलन लोभका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। यहां संज्वलन क्रोध आदि के जघन्य अनुभागके समय अन्य प्रकृतियां नहीं होती, इसलिए उनका सन्निकर्ष नहीं कहा है। संज्वलन लोभके जवन्य अनुभागवालेके एक भी प्रकृतिकी सत्ता नहीं होती, इसलिए यहाँ अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्षका अभाव है। स्त्रीवेदवालेके चार संज्वलन और सात नोकषायोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदके जघन्य अनुभागवालेके चार संज्वलनोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागवालेके पुरुषवेद और चार संज्वलनका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। किन्तु उस समय छह नोकषायोंका परस्पर नियमसे जघन्य अनुभाग होता है। यहां स्त्रीवेद आदि के जघन्य अनुभागवालेके जिन प्रकृतियोंका सत्व होता है उन्हींका सन्निकर्ष कहा है, शेषका सत्त्व नहीं होता, क्योंकि उनकी पूर्वमें ही क्षपणा हो जाती है । अल्पबहुत्व-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव सबसे थोड़े हैं तथा इनसे अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा चूर्णिकारने जीव अल्पबहुत्वका निर्देश न करके स्थिति अल्पबहुत्वका निर्देश किया है । उच्चारणाकी अपेक्षा भी वीरसेन स्वामीने चूर्णिसूत्रके अनुसार जानने की सूचना की है। यहां इतना निर्देश कर देना श्रावश्यक प्रतीत होता है कि उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहत्व कहते समय चूर्णिकारने यह सूचना की है कि जिस प्रकार बन्धमें प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका अल्पबहुत्व है उसी प्रकार जानना चाहिए । तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दोनों बन्ध प्रकृतियां न होनेसे इनके उत्कृष्ट अनुभागका पूर्व अनुभागके अल्पबहुत्वसे तारतम्य बिठलाते हुए स्वतन्त्ररूपसे अन्तमें अल्पबहुत्व कहा है ।। भुजगारविभक्ति भुजगारविभक्तिके चार पद हैं-भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य । पिछले समयमें जितना अनुभाग हो उससे वर्तमान समयमें अधिक अनुभागका होना भुजगार अनुभाग विभक्ति है। पिछले समयमें जितना अनुभाग हो उससे वर्तमान समयमें हीन अनुभागका होना अल्पतर अनुभागविभक्ति है । पिछले समयमें जितना अनुभाग हो, वर्तमान समयमें उतना ही अनुभागका होना अवस्थित विभक्ति है। और सत्ता प्राप्त होनेके प्रथम समयमें जो अनुभाग प्राप्त हो उसका नाम श्रवक्तव्य अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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