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________________ १२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मेत छहाणाणि हदसमुप्पत्तियसंतकम्मछटाणाणि भण्णंति । बंधहाणघादेण बंधहाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पण्णत्तादो। पुणो एदेसिमसंखे०लोगमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमणंतगुणवड्डि-हाणिअदृकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे०लोगमेच्छहाणाणि हदहदसमुप्पत्तियत्तिकम्महाणाणि वुच्चंति, घादेणुप्पण्णअणुभागहाणाणि बंधाणुभागहाणेहिंतो विसरिसाणि घादिय बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पचियअणुभागहाणेहितो विसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो। कमेक्कादो जीवदव्वादो अणेयाणमणुभागहाणकजाणं समुब्भवो ? ण, अणुभागबंध-घाद-घादघादहेदुपरिणामसंजोएण णाणाकजाणमुष्पचीए विरोहाभावादो। एदेसि तिविहाणमवि अणुभागहाणाणं जहा वेयणभावविहाणे परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । एवं परूवणा समत्ता। NARAN स्थान कहलाते हैं, क्योंकि जो स्थान बन्धसे उत्पन्न हो वह बन्धसमुत्पत्तिक है। किन्तु पहले बँधे हुए कुछ अनुभागस्थानोंमें रसघात आदि होनेसे भी नवीनता आ जाती है किन्तु वे बन्धस्थानके समान होते हैं, अत: उन स्थानोंको भी बन्धस्थानमें ही सम्मिलित किया जाता है । सारांश यह है कि बंधनेवाले स्थानों को ही बन्धसमुत्पतिकस्थान नहीं कहते किन्तु पूर्वबद्ध अनुभागस्थानोंमें भी रसघात होनेसे परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी बन्ध स्थान ही कहे जाते हैं। इन असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंके मध्यमें अष्टांक और उर्वक रूप जो अनन्तगुणवृद्धियाँ और अनन्तगुणहानियां हैं उनके मध्यमें जो असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं, क्योंकि बन्धस्थान का घात होनेसे बन्धस्थानोंके बीचमें ये जात्यन्तररूपसे उत्पन्न होते हैं। इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पतिक सत्कर्मस्थानोंके, जो कि अष्टांक और उर्वकरूप अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगणहानि रूप हैं, बीचमें जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है उ हे हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं । बन्धस्थानोंसे विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघातसे उत्पन्न हुए हैं उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान बन्धसमुत्पत्तिक और हतसमुत्पत्तिक अनुभागस्थानोंसे विलक्षणरूपसे ही वे उत्पन्न किये जाते हैं। शंका-एक जीवद्रव्यसे अनेक अनुभागस्थानरूप कार्यो की उत्पत्ति कैसे होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागबन्ध, अनुभागका घात और उस घातितके भी पुन: घातके कारण भूत परिणामोंके संयोगसे एक जीवद्रव्यसे नाना कार्यों की उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है। इन तीनों ही प्रकारके अनुभागस्थानोंका जैसा कथन वेदनाभावविधानमें किया है वैसा यहां भी कर लेना चाहिये । विशेषार्थ-स्थान प्ररूपणामें तीन अनुयोगोंके द्वारा अनुभागस्थानका कथन किया है। अनुभागस्थान तीन हैं -बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक । जो अनुभागस्थान बन्धसे होते हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिक कहते हैं। सूक्ष्म निगोदिया जीवके जो जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है उसके समान जो बन्धस्थान होता है वह जघन्य बन्धसमुत्पत्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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