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________________ २०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणंताणु चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० देसूणाणि । सम्मत्तसम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसणं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णत्थि । $ ३११. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क. अणक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सम्मत्तसम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णत्थि । जोणीणीसु सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभागो गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणक्कस्साणुभागं णत्थि अंतरं । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं पि । णवरि अणुक्क० णत्थि । मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खतिगभंगो। णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० पत्थि अंतरं। ___ ३१२. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० परावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तीन पल्य है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट तिर्यञ्चोमें नहीं होता। $३११. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कष्ट अन्तर अन्तर्महत है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतष्कके अनुत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। तथा तिर्यञ्च योनिनियोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग भी नहीं होता । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागको लेकर अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भी जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनका अनुत्कृष्ट अनुभाग इन जीवोंमें नहीं होता । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनष्यिनियोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनियों के समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुलकम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनत्कृष्टका अन्तर नहीं है। ३१२. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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