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________________ गा० २२ ] अनुभागविहत्तीए अंतरं $ ३०६. आदेसैण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देमूणाणि । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक० ज० अंतोमु, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त० अणुक० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि० । णवरि सागरोवमं देसूणं । एवं छसु पुढवीसु । णवरि सगसगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभागो पत्थि ।। ३१०. तिरक्खेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक • उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क. अंतोमु । णवरि सागर काल बिताकर, तीसरे गुणस्थानमें जाकर, अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर, पुनः वेदक सम्यक्त्व प्राप्त करके दूसरी बार छियासठ सागर काल बिताये। जब उसमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहे तो मिथ्यादृष्टि होकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाये तो अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि इन दोनोंकी सत्तावाला कोई मिथ्यांदृष्टि इन दोनों प्रकृतियोंके उद्वेलन कालमें अन्तर्मुहूर्त बाकी रहने पर उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरिम समयमें सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना करके अन्तिम समयमें उनसे रहित होकर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके पनः दोनोंकी सत्ताको उत्पन्न करता है. अतः एक समय अन्तर पाया जाता है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरावर्तन है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि अर्धपुद्गलपरावर्तन कालके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके इन दोनों प्रकृतियों की सत्ताको उत्पन्न करता है। उसके बाद सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालमें इनकी उद्वेलना करके इनका अभाव कर देता है, अर्धपुद्गलपरावर्तन तक भ्रमण करके जब संसारका अन्त होनेमें अन्तमुहूर्त काल बाकी रहे तो उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुन: सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाता है। इस तरह उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। इन दोनों प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहके क्षपण कालमें होता है, अत: उसका अन्तर नहीं है। ३०९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अत्तर कुछकम एक सागर है। इसी प्रकार छ पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है तथा सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म वहाँ नहीं है। ३१०. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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