SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ तदियं फद्दयमुप्पज्जदि । एवमेदेण कमेण विरलणमेत्तखंडेसु पवितु सु विदियमणुभागहाणमुप्पज्जदि, जहण्णहाणे सव्वजीवेहि खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ताणुभागस्स तत्तो एत्थ अब्भहियस्स उवलंभादो । ६०८. एकम्मि कम्मपरमाणुम्मि हिदाविभागपडिच्छेदाणमणुभागहाण-वग्ग ऊपर स्थित जघन्य स्पर्धकको मिला देनेपर प्रक्षेपका तीसरा स्पर्धक उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस क्रमसे विरलन प्रमाण खण्डोंके प्रविष्ट होनेपर दूसरा अनुभागस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि जघन्य स्थान के सब जीवराशि प्रमाण खण्ड करने पर उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण अनुभाग इस दूसरे अनुभागस्थानमें अधिक पाया जाता है । विशेषार्थ अब अनुभागस्थानकी स्पर्धक रचनाको बतलाते हैं। पहले बतला आये हैं कि जघन्य स्थानके ऊपर छह प्रकारकी वृद्धियां होती हैं और यह भी बतला आये हैं कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार पहली वृद्धिके हो जाने पर आगेकी वृद्धि होती है तथा संदृष्टिके द्वारा उसे समझा भी आये हैं। और यह भी बतला आये हैं कि सबसे प्रथम अनन्तभागवृद्धिमें अनन्तका प्रमाण उतना ही लेना चाहिए जितना जीवराशिका प्रमाण है। अत: जघन्य स्थानमें जीवराशिका भाग देकर जो लब्ध आए उसे उसी जघन्य स्थानमें जोड़ देनेसे अनन्तभागवृद्धि युक्त दूसरा अनुभागस्थान होता है। किन्तु एक एक अनुभागस्थानमें अनेक स्पर्धक होते हैं यह पहले बतला चके हैं और वहां पर स्पर्धक रचनाको बतलाना प्रधान लक्ष्य है, अत: उसके बतलानेके लिए हमें इसे फैलाना होगा। जघन्य अनुभागस्थानमें अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक होते हैं, अत: उसकी स्पर्धक शलाकाका प्रमाण अभव्य राशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण होता है। इस प्रमाणसे जघन्य अनुभागस्थान में भाग देने पर एक स्पर्धकका प्रमाण आता है। जघन्य स्थानसे दूसरे अनुभागस्थानमें ये स्पर्धक अधिक होते हैं। इन बढ़े हुए स्वर्धकोंको वृद्धि स्पर्धक या प्रक्षेप स्पर्धक कहते हैं। इन स्पर्धकोंका जितना प्रमाण है उसका विरलन करो और जघन्य स्थानसे दूसरे अनुभागस्थानमें जितना अनुभाग अधिक है-अर्थात् जघन्य स्थानमें जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध पाया उतना-उस अनुभागके समान भाग करके प्रत्येक प्रक्षेप स्पर्धक पर एक एक भाग दे दो। यह एक एक भाग प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण होता है, अर्थात् इन भागोंको जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकके ऊपर जोड़नेसे प्रक्षेप स्पर्धक या वृद्धि स्पर्धकका प्रमाण आता है। जैसे-जघन्य स्थानका प्रमाण ६५५३६ है और जीवराशिका प्रमाण ४ है। ४ से ६५५३६ में भाग देनेसे लब्ध १६३८४ आता है । इस १६३८४ को ६५५३६ में जोड़नेसे ८१९२० दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण होता है, किन्तु यह १६३८४ प्रमाण अनेक स्पर्धकोंमें विभाजित है और उन स्पर्धकोंका प्रमाण चार है अत: चारका विरलन करके ११११ इनके ऊपर १६९८४ के चार समान भाग करके प्रत्येकके ऊपर देनेसे ४०९६,४०६६ प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण होता है,इस प्रक्षेप स्पर्धकके प्रमाण ४०९६को जघन्य स्थान ६५५३६ में जोड़ देनेसे ६९६३२ जघन्य प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण आता है। इस प्रक्षेप जघन्य स्पर्धकके ऊपर दूसरे विरलन रूपपर अर्थात् एक पर स्थित ४०९६ को जोड़ देनेसे दूसरे प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण आता है। इसी प्रकार विरलन प्रमाण जितने खण्ड हैं एक एक करके उन सबको जोड़ देनेपर ८१९२० दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण होता है। इस दूसरे अनुभागस्थानमें सबसे जघन्य अनुभागस्थान में जीवराशिका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आता है उतना अनुभाग अधिक पाया जाता है। ६०८. शंका-एक कर्म परमाणुमें स्थित अविभागप्रतिच्छेदोंका अनुभागस्थान, वर्ग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy