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________________ १८७ गा० २२] अणुभागबंधाहियारे कालो १८७ * एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । २८३. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णुकस्सकालपरूवणा कदा तहा एदेसिं पणुवीसकसायाणं कायव्वा, विसेसाभावादो। 8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिो केवचिरं कालादो होदि ? ६ २८४. सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुत्त । २८५. णिस्संतकम्मियमिच्छादिटिणा पढमे सम्मत्ते पडिवएणे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस्स आदी जादा । पुणो अंतोमुहुत्तकालमच्छिय उवसमसम्मत्तकालभंतरे अणंताणुबंधिचउक्त विसंजोइय वेदगं गंतूण सव्वजहण्णकालेण दंसणमोहणीयं खतेण अपुव्वकरणद्धाए पढमे अणुभागखंडगे हदे सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमणुभागो जेण अणुक्कस्सो होदि तेण उकस्साणुभागकालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमेत्तो होदि। अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोए तस्स आउअवज्जाणं कम्माणं हिदिअणुभागखंडए णिवदमाणे सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं चेव किमिदि अणुभागखंडओ ण णिवददि १ ण, * इसीप्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंका जानना चाहिये। २८३. जैसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मक जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन किया है वैसे ही इन पच्चीस कषायोंका भी कर लेना चाहिये। दोनोंमे कोई विशेषता नहीं है। ___ * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना 5२८४. यह मूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तमुहते है।। $ २८५. जिस मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्राप्त करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका प्रारम्भ हुआ । पुन: अन्तमुहूर्तकाल तक ठहरकर उपशमसम्यक्त्वके कालके अन्दर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उस जीवने सबसे जघन्य कालमें अर्थात् जितना शीघ्र हो सकता था उतना शीघ्र दर्शनमोहनीयका क्षपण करते हुए अपूर्वकरणके कालमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किया । उस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है, अत: उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त मात्र होता है। शंका-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालेके जब आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका घात होता है तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ही अनुभागकाण्डकका घात क्यों नहीं होता ? १. पा. प्रतौ अणुभागखंडो णिवददि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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