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________________ १८८ साहावियादो । जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * उक्कस्सेण वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । $ २८६. कुदो ? छब्बीससंतकम्मियमिच्छाइहिस्स पढमसम्मतं घेत्तूणुप्पादसम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मस्स तत्थ तोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावहिं गमिय पुणो सम्मामिच्छत्तं गंतॄण तत्थ तोमुहुत्तमच्छिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेतून विदयावहिं भमिय तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छतं गंतूण पलिदो० असंखे० भागमेत्तकालेण उव्वेल्लिदसम्मत्त सम्मामिच्छत्तस्स पलिदो० असंखे ० भागेण भहियdorasसागरोवममेत्ततदुक्कस्सकालुवलंभादो । अथवा तीहि पलिदोवमस्स असंखे ०भागेहि सादिरेयाणि वेळावद्विसागरोवमाणि त्ति के वि आइरिया भणति । तं जहाउवसमसम्मत्तं घेत्तूण पुणो मिच्छतं पडिवज्जिय एईदिएस सम्मत्तहिदिं पलिदो ० असंखे० भागमेत्तं विय पुणो असणिपंचिदिएसुप्पज्जिय तत्थ तोमुहुत्तेण देवाउ बंधिय कमेण कालं करिय दसवस्ससहस्सा उअदेवेसुप्पज्जिय पुणो पज्जत्तयदो होतॄण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावहिं भमिय मिच्छतं गंतूण पुणो दीहुव्वेल्लणका लेण सम्मत्तहिदिं चरिमफालिमेत्तं ठविय पुणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय विदियछावहिं भमिय मिच्छतं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेल्लिदेती ह समाधान नहीं होता, क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव है । Jain Education International [ अणुभागविहत्ती ४ * उत्कृष्ट काल कुछ अधिक दो छियाछठ सागर है । $ २८६. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कैसे है ? समाधान - मोहनीय की छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करके, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सत्ताको उत्पन्न करके प्रथम सम्यक्त्वमें अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर बिताता है । पुन: तीसरे गुणस्थानमें जाकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके दूसरे छियासठ सागरमे जब अन्तर्मुहूर्त काल बाकी रह जाता है तो मिथ्यात्वको प्राप्त करके पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कालमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना कर देता है, अतः उसके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छियासठ सागर पाया जाता है । अथवा किन्हीं आचार्यों का कहना है कि पल्यके तीन असंख्यात भागों से अधिक दो छियासठ सागर प्रमाण उत्कृष्ट काल है । वह इस प्रकार है - उपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करके पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त करके एकेन्द्रियों में सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थितिको पल्यके असंख्यातवें भागमात्र काल प्रमाण करके पुनः असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ अन्तमुहूर्त में देवायुका बंध करके, क्रमसे काल पूरा करके दस हजार वर्ष की आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्त होकर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिध्यात्वमें जाकर पुनः दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व की स्थिति अन्तिम फाली प्रमाण करके, पुनः उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरे छियासठ सागर काल तक भ्रमण करके, मिध्यात्वमें जाकर दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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