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________________ १८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * जहणणुकस्सेण अंतोमुहुर्त । $ २७६, उक्कस्साणुभागं बंधिय सव्वजहण्णेण कालेण घादिदस्स जहण्णकालो सव्वुक्कस्सेण कालेण घादिदस्स सव्वुकस्सकालो त्ति घेतव्वं । * अणुकस्सअणुभागसंतकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? $ २८०. सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुन् । $ २८१. कुदो ? उक्कस्साणुभागं घादिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तकालमच्छिय पुणो उक्कस्साणुभागे पबद्ध तदुवलंभादो। 8 उकस्सेण असंखेजा पोगलपरियट्टा । $ २८२. कुदो ? उक्कस्साणुभागसंतकम्मं घादिगणं अणुक्कस्सम्मि णिवदिय अणुकस्साणुभागसंतकम्मेण पंचिंदिएसु तप्पाओग्गुक्कस्सकालमच्छिय पुणो एइंदिएम मंतूण असंखे०पोग्गलपरियट्ट गमिय पच्छा पंचिंदियं गंतूण बद्धक्कस्साणुभागस्स तदुवलंभादो। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । $ २७९. उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके यदि उसका घात सबसे जघन्य कालमें अर्थात् अल्दी ही कर दिया जाता है तो जघन्य काल होता है और यदि उसका घात सबसे उत्कृष्ट काल में किया जाता है तो सबसे उत्कृष्ट काल होता है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये। * अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है । ६२८० यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। २८१ शंका-मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक क्यों रहता है ? समाधान-उत्कृष्ट अनुभागका घात करके सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर पुनः उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। __ * उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। ६ २८२. शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल असंख्यातपुद्गल परावर्तनप्रमाण कैसे है ? समाधान-उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात करके, अनुत्कृष्टम गिरकर अनुत्कृष्ट अनुभाग के साथ पञ्चेन्द्रियोंमे अधिकसे अधिक जितने काल तक रह सकते हैं उतने काल तक ठहरकर पुन: एकेन्द्रियोंमें जाकर असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल बिताकर पीछे पञ्चेन्द्रिय होकर जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है उसके उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण पाया जाता है। १. प्रा० प्रतौ धादियाण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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