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________________ मा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो १२७. उवसम० उक्कस्साणुक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं सम्मामिच्छादिहीणं । सासण. उक्कस्साणुक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणाहारीसु उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं कम्मइय० । एवमुक्कस्सओ कालाणुगमो समत्तो। 5 १२८. जहएणए पयदं। दुविहो णिसो–ोघे० आदेसे० । ओघे० मोह. भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टियोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इस योगवाले जीवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अपगतवेदी आदि अन्य मार्गणाओंमें अपने अपने स्वामित्वको ध्यानमें रखकर इसी प्रकार उक्त काल घटित कर लेना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इस योगवाले जीवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि यह मार्गणा बराबर बनी रहती है, अन्य मार्गणाओंके समान यह बदलती नहीं। शेष कथन सुगम है। १२७. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अनाहारियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलीका असंख्यातवाँ भाग है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वदा रहती है। इसी प्रकार कार्मणकाय योगमें जानना चाहिए । विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें भी घटित कर लेना चाहिए। नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनसम्यक्त्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अनाहारक और कार्मणकाययोगियोंमें उर ष्ट अनुभागवाले कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होते हैं, कारण कि निरन्तर यदि असंख्यात अनाहारक जीव भी उत्कृष्ट अनभागवाले हों तो उस सब कालका योग श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभाग वालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा अनाहारक सर्वदा पाये जाते हैं, अत: इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका काल सर्वदा कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६ १२८. अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे। नकहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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