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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १२२. आदेसेण णेरइएमु उक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणुक्क० सव्वद्धा। एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-देव-भवणादि जावे सहस्सारे ति सव्व एइंदिय-सव्व विगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज--पंचकाय०-तसअपज्ज०पंचमण-पंचवचि०--कायजोगि--ओरालि०-ओरालियमिस्स०-वेउन्विय०--तिण्णिवेदचत्तारिकसाय-तिण्णिअण्णाण-असंजद-पंचले -सण्णि-असएिण-आहारि ति । णवरि मदि-सुदअण्णाणि-असंजद, उक्क० जह• अंतोमु० । विभक्तिवाले हों। यह देख कर यहाँ नाना जीवो की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि एकके बाद दारा इस प्रकार निरन्तर उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात जीव भी होगे तो उन सबके कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा। मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो का काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। १२२. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंञ्च, मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, सब एकन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी,लोभी, तीनों अज्ञानी, असंयत, शुक्लके सिवा शेष पाँचो' लेश्यावाले, संज्ञी, असंज्ञी और आहारकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और असंयतोमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले अन्य गतिके जीवो के उत्कृष्ट अनुभागके कालमे एक समय शेष रहने पर नारकियों में उत्पन्न होने पर नरकमे नाना जीवों की अपेक्षा भी मोहनीयकै उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालो का जघन्य काल एक समय कहा है। तथा यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालो का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ओघके अनुसार घटित कर लेना चाहिए, क्योकि जितनी भी असंख्यात और अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जाता है। क रण कि ऐसी सब मार्गणाओं में लगातार उत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात जीव ही होते हैं और असंख्यात अन्तर्मुहूर्तों का योग पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए उनका काल सर्वदा कहा है। यहाँ मूलमें सब नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का काल सामान्य नारकियो के समान जाननेकी सूचना की है। मात्र उत्कृष्ट अनुभाग मिथ्यादृष्टिके होता है और इसका एक जीवकी अपेक्षा भी जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है, अत: यहाँ मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी और असंयतो मे नाना जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागवालो का जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है, क्योकि मिथ्याष्टिके जिस प्रकार अन्य मार्गणाऐं बदल सकती हैं उस प्रकार ये मागणाएं नहीं बदलतीं। १. श्रा० प्रतौ देव जाव इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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