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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो ६.१२३. मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुसअपज. उक्क० अणुक्क० ज० एयस० अंतोमुहुत्, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं वेउव्वियमिस्स० । __१२४. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति उक्कस्साणुकस्स० सव्वद्धा। एकमाभिणि०--सुद०--ओहि०-मणपज्ज०--संजद--सामाइय-छेदो०-परिहार-संजदासंजदओहिदं०-मुक्कले०-सम्मादि०-वेदग०-खइय०दिहि त्ति । णवरि--आभिणि-सुद०-ओहि०ओहिदंस०--सुक्कले०-सम्मादिहि-वेदयसम्मादिट्टीसु उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असं०भागो। १२३. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियो मे जघन्य काल एक समय नारकियो के समान घटित कर लेना चाहिए। तथा इन दोनों मार्गणावालो का प्रमाण संख्यात होता है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागवालों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योकि यहाँ संख्यात अन्तर्मुहूर्ताका योग अन्तर्मुहूर्त ही होगा। यह दोनो निरन्तर मार्गणाएं हैं, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का काल सर्वदा कहा है। यह तो सम्भव है कि जिनके उत्कृष्टमें एक समय काल शेष है ऐसे जीव मनुष्य अपर्याप्तको में उत्पन्न हो पर उत्कृष्ट अनुभागका घात होने पर मनुष्य अपर्याप्तको का जो काल शेष रहता है उस कालमें उनके अनुत्कृष्ट अनुभाग नियमसे पाया जाता है, इसलिए मनुष्य अपर्याप्तको में उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ इतना अवश्य समझना चाहिए कि मनुष्य अपरलप्त अन्तर्मुहूर्त काल तक रहें और बादमें उनका अभाव हो जाय इस अपेक्षा यह अन्तमहर्त काल कहा है। तथा नाना जीवो की अपेक्षा मनष्य अपर्याप्तको का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी यह भी सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमे उक्त सब काल घटित हो जानेसे उसकी प्ररूपणा मनुष्य अपयोप्तकों के समान की है। १२४. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तकके देवों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वदा पाई जाती है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनवाले शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियों में उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। विशेषार्थ-आनत आदिमे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का निरन्तर सद्भाव बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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