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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए सण्णा १५१ मिदि भणिदत्तादो। * उकस्सयमणुभागसंतकम्म सव्वघादी चउट्ठाणियं । $ २१२. सुगममेदं, असई परूविदत्तादो। { २१३. संपहि वुत्तदोमुत्ताणं विसयपरूवणदुवारेण अपवादपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि ॐ वरि खवगस्स चरिमसमयणqसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्म देसघादी एगट्ठाणियं ।। ६२१४. कुदो ? चरिमफालिं परसरूवेण संकामिय उदयगदएगगुणसेढिगोवुच्छाए हिदअणुभागसंतकम्मस्स ग्गहणादो । ३ २१५ ( एवं जइवसहाइरियपरूविदजहण्णुक्कस्साणुभागविसयघादिसण्णाहाणसण्णाणं' परूवणं काऊण संपहि उच्चारणाइरियवक्वाणक्कम परूवेमो ६२१६. तत्थ सण्णा दुविहा-घादिसण्णा हाणसण्णा चेदि । घादिसण्णा दुविहा—जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक०-छण्णोक० उक० अणक्क० सव्वघादी। सम्मत्त० उक्क० अणुक्क० देसघादी । चदुसंजलण-तिण्णिवेद० उक्क० सव्वघादी अणुक्क० समाधान-क्योंकि सूत्र में देशघाती और एकस्थानिक न कह कर सर्वघाती और द्विकस्थानिक कहा है इससे जाना कि यह सूत्रोक्त जघन्य अनुभाग नपुंसकवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें ग्रहण किया है। * तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है। २१२. इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि अनेक बार उसे कह चुके हैं। ६२१३. अब उक्त दो सूत्र के विषयकी प्ररूपणाके द्वारा अपवादका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * इतना विशेष है कि अन्तिम समयवर्ती नपुसकवेदी तपकका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है । ६२१४. क्योंकि अन्तिम फालीको पररूपसे संक्रमाकर उदयगत एक गुणश्रेणिगोपुच्छामें स्थित अनुभागसत्कर्मका यहाँ ग्रहण किया है। २१५. इस प्रकार आचार्य यतिवृषभके द्वारा प्ररूपित जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग विषयक घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका कथन करके अब उच्चारणाचार्यके द्वारा किये गये व्याख्यानक्रमको कहते हैं २१६. संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंका उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म १. श्रा० प्रतौ -सराणवाणसपणाणं इति पाठः। २. ता० प्रती -वक्खाणकर्म इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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