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________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ सव्वघादी वा देसघादी वा । $ २१७. आदेसेण णेरइएमु छव्वीसं पयडीणमुक्क० अणुक्क० सव्वघादी। सम्मत्त० उक्क० अणुक्क० देसघादी। सम्मामि० उक्क० सव्वघादी। अणुक्कस्साणुभागसंतकम्म पत्थि, दंसणमोहक्खवणं मोत्तूण अण्णत्थ सम्मत्त--सम्मामिच्छताणमणुभागकंडयघादाभावादो। एवं पढमपुढवि-तिरिक्व-पंचिंदियतिरिक्व-पंचिं०तिरि० पज्ज०-देव०-सोहम्मादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणुक्क० णत्थि, कदकरणिज्जाणं तत्थुववादाभावादो। एवं पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीपंचिं०तिरि०अपज्ज०--मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिय त्ति । मणुसतियस्स ओघमंगो। णवरि मणुसपज्जत्तएम इत्थि० उक्क० अणुक्क० सव्वघादी। कदो? परोदएण खवगसेढीए णिल्लेविदत्तादो। मणुस्सिणीसु पुरिस०-णस० उक्क० अणुक्क० सव्वघादी। कदो ? खवगसेढीए परोदएण णहत्तादो। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । $ २१८. जहण्णए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्त०सम्मामि०--बारसक०--छण्णोक० ज० अज० सव्वघादी। सम्मत्त० ज० अज० देसघादी। पुरिस०-चदुसंज० ज० देसघादी। अज० देसघादी सव्वघादी वा। चदुण्हं देशघाती है। चार संज्वलन कषाय और तीनों वेदोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और देशघाती है। १२१७. श्रादेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म देशघाती है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। किन्तु नरकमें उसका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं है; क्योंकि दर्शनमोहके क्षपणके सिवाय अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनभागकाण्डकघात नहीं होता। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी ऐसा ही समझना चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि यहां सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्भ नहीं होता; क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंका वहां उत्पाद नहीं होता । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त; मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासा, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । तीन प्रकारके मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, क्योंकि इनके क्षपकनेणीमें परोदयसे उसका विनाश होता है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, क्योंकि इनके क्षपकश्रेणीमें परोदयसे उन दोनोंका विनाश होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए। ____ २१८, अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है--श्रोध और आदेश । उनमें से ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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