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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सण्णा १५३ संजलणाणं किट्टित्तमुवणमिय विणष्ठाणमजहण्णाणुभागस्स होदु णाम देसघादित्तं, ण पुरिसवेदस्स, फइयसरूवेण विणहत्तादो ? ण, पुरिसवेदस्स वि दुसमयणदोआवलियमेत्तकालं देसघादिअजहण्णाणुभागफहयाणमुवलंभादो । इत्विा-णवंस. जह० देसघादी । अजहण्णं सव्वघादी। एवं मणुसतियम्मि। णवरि मणुसपज्ज० इत्थि० जहण्णाजहण्ण. सव्वघादी मंणुसिणीसु पुरिस०-णस० जहण्णाजहण्ण० सव्वघादी। $ २१६. आदेसेण णिरयादि जाव सव्वसिदि ति उक्कस्सभंगो । णवरि जहण्णाजहण्णं ति भाणिदव्यं । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव अणाहारि ति। २२०. हाणसण्णा दुविहा-जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०--छण्णोक० उक्क० चउहाणियं । अणुक्क० चउहाणियं तिहाणियं वेढाणियं वा । सम्मत्त० उक्क वेढाणियं । अणुक्क० वेढाणियं एगहाणियं वा। सम्मामि० उकस्साणुक्कस्सं० वेढाणियं । चदुण्णं संजलणाणं तिण्हं वेदाणमुक्क० चदुहाणियं । अणुक्क० चदुहाणियं वा तिहाणियं वा विहाणियं वा एगहाणियं वा । एवं मणुसतिये। णवरि मणसपज्ज० इत्थिवेदस्स एगपुरुषवेद और चार संज्वलन कषायोंका जघन्य अनुभाग देशघाती है और अजघन्य अनुभाग देशघाती और सर्वघाती है। शंका-चारों संज्वलन कषाय कृष्टिपनेको प्राप्त होकर नष्ट होती हैं, अत: उनका अजघन्य अनुमग देराघाती होओ, किन्तु पुरुषवेदका अजघन्य अनुभाग देशघाती नहीं हो सकता, क्योंकि पधकरूपसे उसका विनाश होता है। समाधान नहीं क्योंकि पुरुषवेदके भी दो समय कम दो आवली मात्र काल तक देशघाती अजघन्य अनुभागस्पर्धक पाये जाते हैं। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। इसी प्रकार मनुष्यके तीन भेदोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुं नकवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। २१९ आदेशसे नरकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ६ २२०. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । यहां उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दा प्रकारका है-ओघ और आदेश ! ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायों का उत्कृष्ट अनुभागसत्कम चतुःस्थानिक है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक है । सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म द्विस्थानिक और एकस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। चार संज्वलन कषाय और तीन वेदोंका उत्कृष्ट अनभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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