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________________ marwadi २८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अवहि० जहण्णुक्कस्सहिदी । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। ४८१. अंतराणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण वावीसं पयडीणं भुजगारस्स अंतरं ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तमब्भहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्तसम्मामिच्छताणमप्पदर० जहण्णुक्क० अंतोमु०, चरिम-दुचरिमकंडयाणं पढम-विदियहै। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए। विशेषार्थ-ओघ की तरह आदेशसे भी काल को लगा लेना चाहिये। नरकमें छब्बीस प्रकृतियो में अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि नरकमें जन्म लेकर सम्यग्दृष्टि होने पर इतना काल पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अवस्थित विभक्तिका काल पूर्ण तेतीस सागर है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टिके भी होती है और मिथ्यादृष्टिके भी होती है। इसी प्रकार प्रत्येक नरकमें यथायोग्य समझना। सामान्य तिर्यञ्चा मे छब्बीस प्रकृतियो की अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, क्योकि कोई तियञ्च तिर्यञ्चकी आयु बाँधकर देवकुरु-उत्तरकुरुमें तीन पल्यकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ तो उसके अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य काल अवस्थित विभक्तिका होता है। तथा सम्यक्त्व और. सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य होता है, क्योंकि एक मिथ्यादृष्टि उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्व की सत्तावाला हुआ। पुन: मिथ्यात्वमे आकर पल्यके असंख्वातवें भाग काल तक तिर्यञ्च पर्यायमें भ्रमण करके जब सम्यक्त्वके उद्वेलना कालमें अन्तर्महत बाकी रहा तो मर कर तीन पल्य की स्थिति लेकर देवकुरु-उत्तरकुरुमे उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वको प्राप्त हो गया तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तमें इन दोनों प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका काल पूर्वकाटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है सो ही इन दोना पर्यायो का उत्कृष्ट काल है अतः उसी तरह जानना। सामान्य देवो में सभी प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा जानना। भवनत्रिकमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है किन्तु छब्बीस प्रकृतियों में कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है, क्योंकि जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सम्यग्दृष्टि होने पर उक्त काल पाया जाता है। सौधर्मसे लेकर सवार्थसिद्धि तक सभी प्रकृतियो' पी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण जानना। ४१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यहाँपर चरम और द्विचरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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