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________________ गा० २२) अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो सम्मामिच्छत्तवज्जाणमप्पदर० जहण्णुक्क० एमस० । एवं मणुसअपज्जः । ४७६. मणुस्साणमोघं । णवरि सव्वेसिमवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि मणुसिणीसु पुरिस० अप्पद. जहण्णुक० एगस० । ४८०. देवाणं णेरइयभंगो । णवरि अहावीसंपयडीणमवहि० उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । भवण-वाण-जोइसि० एवं चेव । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्पत्त--सम्मामि० अवहि. सगहिदी । सम्मत्त० अप्पदर० गत्थि । सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति देवोघं । णवरि सगहिदी । आणदादि जाव णवगेवज्ज० छव्वीसंपयडीणमप्पद० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु० । अणंताणु०चउक्कस्स एगस०, उक्क. सव्वासिं सगहिदी । अणंताणुचउक० भुज०-अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त० अप्पद० ओघं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । अवत्तव्व० ओघं । सम्मामि० एवं चेव । णवरि अप्पद० णत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि ति छव्वीसं पयडीणमप्पद० जहण्णुक० एगस० । अवहि. ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त० अप्पद० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । ४७९. सामान्य मनुष्योंमें ओघकी तरह जानना चाहिए । इतना विशेष है कि इनमें सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६४८० देवोंके नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल कुछकम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । सौधर्मसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंमें सामान्य देवोंकी तरह काल है। इतना विशेष है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । आनतसे लेकर नवनवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट एक समय है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सबका अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्य विभक्ति का काल ओघकी तरह है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघकी तरह है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघ की तरह है । सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि अल्पतर विभक्ति नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतरविभक्तिका काल ओघके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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