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________________ गा० २२ अणुभागविहत्तीए भुजगारअंतर २८१ कंडयाणं च अंतरालस्स जहण्णुकस्संतरभावेण गहणादो। अवहि० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० दोण्हं पि उवडपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवहिद० ज० एगस०, उक्क. वेछावहिसागरोवमाणि देमणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियट्ट देसूणं । ४८२. आदेसेण रइएमु बाबीसं पयडीणं भुज. अप्पदर० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवद्विद० ओघ । सम्मत्त० अप्पद गत्थि अंतरं । सम्मत्त-समामि० अवहि. जह० एगस०, अधवा वे समया, अवत्त० जह० काण्डकके अन्तरालका जघन्य अन्तररूपसे ग्रहण किया है और प्रथम तथा द्वितीय काण्डकके अन्तरालका उत्कृष्ट अन्तररूपसे ग्रहण किया है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा दोनों विभ. क्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वकी तरह है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है। प्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गल परावर्तनकाल प्रमाण है। विशेषार्थ-ओघसे बाईस प्रकृतिया की भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर दो बार वेदक सम्यक्त्व, एक बार उपरिम अवयक और एक बार देवकुरु उतरकुरुके कालको तथा अन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वके उत्पत्तिकालको जोड़नेसे एक सौ त्रेसठ सागर और अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य होता है, अधिकसे अधिक इतने काल तक भुजगार विभक्ति बाईस प्रकृतियों में नहीं होती। अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर जितना पहले ओघसे बाईस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल कहा है उतना ही होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों प्रकृतिया में दर्शनमोहके क्षपण कालमें जब काण्डकघात होता है तभी अल्पतर विभक्ति होती है, सो प्रथम काण्डक होकर दूसरा काण्डक हाता है, अत: प्रथम काण्डक और दूसरे काण्डकमें जितना अन्तरकाल है उतना तो उत्कृष्ट अन्तर हैं और उपान्त्यकाण्डक और अन्तिम काण्डककी जितना अन्तरकाल है उतना जघन्य अन्तरकाल होता है। इन दोनों प्रकृतियो की अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वक द्वारा इन दोनों प्रकृतिया की सत्ता को करके अवक्तव्य विभक्ति करता है। तथा पल्यके असंख्यावें भाग कालमें दोनों की उद्वेलना करके पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करके पुनः इन दोना प्रकृतियों की सत्ता को करके अवक्तव्य विभक्ति करता है, अत: जघन्य अन्तर काल पल्यकें असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल है, क्योंकि प्रथमापशमके द्वारा दोनों प्रकृतियों की सत्ताको करके सम्यक्त्वसे च्युत होकर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण करके अन्तिम भव में पुन: सम्यक्त्व का उत्पन्न करके दोनों प्रकृतियो की सत्ता करने पर उत्कृष्ट अन्तर होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी श्रवक्तव्यविभक्तिका अन्तर भी इसी प्रकार जान लेना। १४८२. श्रादेशसे नारकियों में बाईस प्रकृतियां की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका क्रमशः जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर ओघकी तरह है । सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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