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________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ पलिदो० असंखेभागो, उक्क० दोण्हं पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवहि० ज० एगस०, अप्पदर० अवत्तव्व० ज० अंतोमु०,उक्क० सव्वेसि तेत्तीसं साग० देसूणाणि । एवं पढमपुढवि०। णवरि सगहिदी देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्पत्त० अप्पदर० णत्थि । ४८३. तिरिक्खेमु वावीसं पयडीणं भुज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। कुदो ? पंचिदिएसु भुजगारं कादूण पुणो एइंदिएमु पविसिय पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण एइंदियबंधेण सरिसमणुभागसंतकम्म काऊण पुणो सत्थाणे चेव भुजगारे कदे पलिदो० असंखे०भागमेत्तरकालुवलंभादो। अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० अंतोमु० सादिरेयाणि । अवहि० ओघं । सम्मत्त० अप्पदर० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० अवत्तव्यं ओघं । अणंताणु०४ मिच्छत्तभंगो । णवरि भुज. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अवहि. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ओघं । ४८४. पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्जत्तएसु वावीसंपयडीणं भुज० ज० है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय अथवा दो समय है । अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा सभी विभक्तियांका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर: कुछकम अपनी स्थिति प्रमाण है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं है। ४८३. तिर्यञ्चोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग.प्रमाण है, क्योंकि पञ्चेन्द्रियों में भुजगारका करके पुनः एकन्द्रियोंमें जन्म लेकर वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा एकन्द्रियके बन्धके समान अनुभाग सत्कर्मका करके पुनः स्वस्थानमें भुजगारके करनेपर भुजगार विभक्तिका अन्तर काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। ,अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थित विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर काल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। ६४८४. पञ्चन्द्रियसिर्यश्च और पञ्चन्द्रियतियञ्चपर्याप्तकोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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